Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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अष्टमः
२३३ वनपालेन = वनपाल द्वारा वनम् = वन में, आगतः = आये हुये, स्वामी = मुनिराज, श्रीधरः = श्रीधर, ज्ञापितः = बताये
गये।
श्लोकार्थ – एक दिन मुनिदर्शन के लिये अत्यधिक उत्कंठित उस राजा
के लिये वनपाल ने ज्ञान कराया अर्थात बताया कि
मुनिमहाराज श्रीधर वन में आये हुये हैं। लदैव स्वकसमाजेन सहितः तत्क्षणान्नृपः । गतो मुनेस्समीपं स: नन्वा स्तुन्या च प्रभुम् !!१६|| तत्सकाशात् जैनधर्मान् श्रुत्त्वा संसारमीश्वरः ।
असारं च मनसा ज्ञात्वा विरक्तोऽभूत्स्यमानसे ।।१७।। अन्वयार्थ -- तदा = तब, सः - वह, नृपः : राजा. स्वकसमाजेन = अपनी
समाज के अर्थात् स्वकीय परिवार से, सहितः = युक्त हुआ. तत्क्षणात - जल्दी से, एवं - ही, मुनेः = मुनिराज के, समीप = पास में, गतः - चला गया, च = और. प्रभुं = मुनिराज को, नत्वा = गमस्कार करके. च = और, स्तुत्वा = स्तुति करके, तत्सकाशात् = उनके पास से, जैनधर्मान् = जैन धर्म के सिद्धान्तों को, श्रुत्वा - सुनकर च = और, मनसा = मन से, संसारं = संसार को, असारं = सार रहित, ज्ञात्वा = जानकर, ईश्वरः = वह राजा, स्वमानसे = अपने मन में,
विरक्तः = विरक्त, अभूत् = हो गया | श्लोकार्थ – तब अर्थात् मुनिराज आये हैं इस समाचार को जानने पर
वह राजा अपने परिवार सहित जल्दी ही मुनिराज के समीप गया तथा उन्हें नमस्कार करके एवं उनकी स्तुति करके, उनके पास से जैनधर्मो अर्थात् जैनसिद्धान्तों को सुनकर, मन से संसार को सार रहित जानकर मन ही मन वैराग्य
को प्राप्त हो गया। राज्यं सुवर्णनाभाय स्वपुत्राय समर्प्य सः ।
बहुभिः भूमिपैस्सार्ध जैनी दीक्षां समग्रहीत् ।।१८।। अन्वयार्थ --- सः = उस राजा ने. स्वपुत्राय = अपने पुत्र, सुवर्णनामाय