Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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अष्टम
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यह भुवि पृथ्वी पर महाराजः = महाराज, अजितसेन, अभवत्
हुआ ।
श्लोकार्थ - तीर्थकर चन्द्रप्रभ अपने पूर्व के भवों में पहिले श्रीवर्मा थे उसके बाद श्रीधर नामक देव के रूप में याद किये गये हैं और फिर उसके बाद इस पृथ्वी पर यही अर्थात् चन्द्रप्रभ भगवान् का जीव महाराज अजितसेन हुआ था । ततो दीक्षां गृहीत्वासौ तपः कृत्वा सुदुष्करम् ।
त्यवत्त्वासून् तत्र सन्यासात् स्वर्गे षोडशमे गतः । । ४ । । ततः = उसके बाद, असौ - वह राजा अजितसेन, दीक्षां मुनिदीक्षा को गृहीत्वा = ग्रहण करके किन्तु कठिन- कठोर, तपः = तपश्चरण, = वहीं अर्थात् मुनिदीक्षा में सन्यासात् असून् = ग्रामों को, त्याला = स्वर्गे = स्वर्ग में, गतः = चले गये।
अन्ययार्थ
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२२६
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अजितसेन:
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सुदुष्करं = अच्छा कृत्वा = करके, तत्र सन्यास मरण से. गोडशी - सोलहवें,
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द्वाविंशतिसमुदायुश्च स्वर्गसौख्यं समन्वभूत् । देवस्त्रीकुमुदनीप्रोद्बोधरजनीकरः ।।५।।
श्लोकार्थ – उसके बाद वह राजा अजितसेन मुनिदीक्षा को ग्रहण करके अच्छा किन्तु कठिन तपश्चरण करके मुनिदीक्षा में ही सन्यास मरण से प्राण छोड़कर सोलहवें स्वर्ग में चले गये।
अन्वयार्थ - द्वाविंशतिसमुद्रायुः = बावीस सागर की आयु वाले, च = और, देवस्त्रीनेत्रकुमुदनीप्रोदबोधरजनीकरः = देवाङ्गनाओं की आँखों रूपी कुमुदनियों को प्रफुल्लित करने के लिये चन्द्रमा के समान, (सः = उस देव ने), स्वर्गसौख्यं = स्वर्ग के सुख को समन्वभूत् = अच्छी तरह से भोगा।
श्लोकार्थ - बावीस सागर की आयु वाले एवं देवाङ्गनाओं के नेत्रों रूप कुमुदनियों को खिलाने वाले चन्द्रमा के समान उस देव ने स्वर्ग के सुख को अच्छी तरह से भोगा ।
विदेहे धातकीखण्डे तथैव पूर्व उत्तमे । सीतादक्षिणभागेऽस्ति विषयो मङ्गलावती ||६||