Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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सप्तमः श्लोकार्थ – मुनिराज को आहार दान देने के बाद उस श्रेष्ठी द्वारा वह
सोमदत्त नामक पण्डित पूछा गया कि हे मित्र इसका फल क्या होगा, मन में विचार कर सार रूप से कहो। तब सेठ के ऐसे वचन सुनकर विद्याओं के अभिमान में फूला हुआ यह पण्डित बोला – हे सेट! इस पथ्वी पर जो भी उन श्रमण मुनियों को मोजन देवे वह कुष्ठ रोग को पाता है। पण्डित की इस मिथ्यावाणी को सुनकर सेठ धैर्य को छोड़कर खिन्न मन वाला व उदास हो गया। अनादृत्य मुनिम्यैवं स विप्रो दुर्गतिं गतः ।
प्रथमायां तत्र तदुःखमन्वभूदार्तमानसः ।।८६।। अन्वयार्थ – एवं = इस प्रकार, मुनिं = मुनिराज का, अनादृत्य = अनादर
करके, सः = वह, विप्रः = ब्राह्मण, दुर्गति = दुर्गति को, गतः = चला गया. च - और, तत्र = वहाँ दुर्गति में, प्रथमायां = पहिली भूमि में, आर्तमानसः = आर्तध्यान वाले उसने, तदुखं = मुनिनिन्दा से प्राप्त दुःख को, अन्वभूत् = अनुभूत
किया। श्लोकार्थ – इस प्रकार मुनिराज का अनादर करके उस ब्राह्मण ने दुर्गति
प्राप्त की और वहाँ अर्थात् दुर्गति स्वरूप पहिली नरक भूमि में आर्तध्यान वाला होकर उसने मुनिनिन्दा से प्राप्त होने वाला
दुख भोगा। अन्ते निजाशुभं कर्म श्रुत्वाऽऽत्मानं निनिन्द सः ।
पश्चात्तापं मुहः कृत्वा दुर्गतौ मृत्युमाप्तवान् ।।७।। अन्वयार्थ – अन्ते = नरक पर्याय के अन्त समय में, निजाशुभं = अपने
अशुभ, कर्म = कर्म को, श्रुत्वा = सुनकर, सः = उस नारकी ने, आत्मानं = अपने आपकी, निनिन्द = निन्दा की, मुहुः = बार-बार, पश्चात्तापं = पश्चात्ताप को, कृत्वा = करके, दुर्गतौ = तिर्यञ्च नामक दुर्गति में, मृत्युं = मरण को, आप्तवान् =
प्राप्त किया। श्लोकार्थ - नरक आयु के अन्तिम समय में उसने अपने उस अशुभ कर्म