Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्लोकार्थ – एक बार सिंहपीठ पर सुख से बैठा हुआ वह राजा आकाश
में उदित होते और उसी क्षण नष्ट होते धनुष को देखकर विरक्त हो गया। उसने संसार को ही सार रहित मानकर महान् बुद्धिमान अपने सुमित्र नामक पुत्र को बुलाया और उसे संबोधित करके विधिविधान पूर्वक उसको राज्य में अपने सिंहासन पर स्थापित करके निश्चित रूप से उत्कृष्ट पद रूप
मोक्ष की प्राप्ति के लिये वन में प्रस्थान किया। तत्र नत्वा स शिरसा मुनीशं पिहिताम्रपम् ।
सहेतुकयने तस्य सकाशाद्दीक्षितोऽभवत् ।।१३।। अन्वयार्थ – तत्र = उस, सहेतुकवने = सहेतुक वन में, सः = उस राजा
ने. मुनीशं = मुनिराज. पिहितास्रव = पिहिताम्रव को. शिरसा = मस्तक से, नत्वा = नमस्कार करके, तस्य = उन मुनिराज
के, सकाशात् = पास, दीक्षितः = दीक्षित, अभवत् = हो गया। श्लोकार्थ – उस सहेतुक वन में उस राजा ने मुनिराज पिहितास्रव को
मस्तक झुकाकर नमस्कार किया और उनके ही पास वह दीक्षित हो गया अर्थात् मुनि बन गया। एकादशाङ्गसन्दीप्तो धृत्वा षोडशभावनाः ।
अभूत्स तीर्थकृद्गोत्रं तपस्तेजोऽर्कसन्निभः ।।१४।। अन्वयार्थ - एकादशाङ्गसन्दीप्तः = ग्यारह अगों के ज्ञान से उद्दीपित,
सः = उन मुनिराज ने, षोडशभावनाः = दर्शनविशुद्धि आदि सोलह मावनाओं को, धृत्वा = भाकर, तीर्थकृद्गोत्रं = तीर्थङ्कर नामक पुण्य को, (बबन्ध = बांधा), (च = और), तपस्तेजोऽर्कसन्निभः = तपश्चरण के तेज से सूर्य की सन्निभा
वाले, अभूत् = हो गये। श्लोकार्थ – ग्यारह अगों के ज्ञान से आलोकित उन मुनिराज ने दर्शन
विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाओं को भाकर तीर्थङ्कर नामक महापुण्य का बन्ध किया और तपश्चरण रूपी तेज से सूर्य के समान आभा वाले हो गये ।