Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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यह शस्त्रास्त्रों से सभी शत्रुओं का विजेता होकर सम्पूर्ण पृथ्वी पर राजाओं के समूहों से अर्चना किया जाता हुआ चक्रवर्ती के समान सुशोभित हुआ। पूर्वजन्म में उपार्जित अपने पुण्याचरण रूप धर्म के बल से उस राजा ने सप्ता गों से परिपूर्ण राज्य का पालन किया और आरोग्य अर्थात् निरोगता के सुख से सुखी लोगों का शिरोमणि हुआ। जाण्यासस्य विषये कषिकदिभश्च याचिताः ।
सत्क्षणादेय चाभूगन्धारिदा वारिदाः शुभाः ।।७।। अन्ययार्थ -- च = और, तत्पुण्यात् = उसके पुण्य से, तस्य = उसके, विषये
= देश में, कृषिकृभिः = कृषकों द्वारा, याचिताः = प्रार्थना किये गये, शुभाः = शुभ लक्षण वाले, वारिदाः = बादल, तत्क्षणात = उस क्षण, एव = ही, वारिदाः = जल देने वाले,
अभूवन = हो गये। श्लोकार्थ - और उसके पुण्य प्रताप से ही उस राजा के देश में कृषकों
से प्रार्थना किये जाते मेघ जल्दी ही जल बरसाने वाले होते
थे। तदानान्नार्थिनां गेहे दारिदयं समदृश्यत ।
सन्मार्गगाः प्रजास्तस्य दण्डाहः को पि नाभवत् ।।८।। अन्वयार्थ - तद्दानात् = राजा के द्वारा दान दिये जाने से, अर्थिनां =
याचकों के, गेहे = घर में, दारिद्रयं = दरिद्रता, न = नहीं, समदृश्यत = देखी जाती थी, तस्य = उसकी, प्रजाः = जनता, सन्मार्गगाः = सन्मार्ग पर चलने वाली, (आसन् = थी), (अतः = इसलिये); कोऽपि = कोई भी, दण्डाहः = दण्ड के योग्य,
न = नहीं, अभवत् = होता था। श्लोकार्थ – उस राजा द्वारा निरन्तर दान दिया जाता था जिससे याचकों
के घर में दरिद्रता दिखाई ही नहीं देती थी। उसकी प्रजा सन्मार्ग पर चलने वाली थी इसलिये उसके राज्य में ऐसा कोई नहीं था जो दण्ड के योग्य होता।