Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री सम्मेदशिखर माहात्म्य = मुनिदीक्षा को, जग्राह = ग्रहण कर लिया, दशैकाङ्गधरः = ग्यारह अङ्गों का ज्ञाता, अयं = यह, मुनिः = मुनिराज, धैर्यतः = धैर्य से, परमं = उत्कृष्ट, तपः = तपश्चरण, आचरन् = पालते हुये, उक्तानि = कहे गये, षोडश = सोलह, कारणानि = कारणों को सम्भाव्य = अच्छी तरह भाकर, उच्चैः = उच्चतम, तीर्थङ्करः = तीर्थङ्कर पुण्य वाला, बभूव =
हुआ। श्लोकार्थ - वन में अर्हन्नन्दन मनिराज को नमन करके उस राजा ने
उनके ही पास से जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली तथा ग्यारह अङ्गों का ज्ञाता होकर यह मुनिराज परम तप का धैर्य पूर्वक पालन करती हुये सोलह सारा गावनायें नाकः उच्चतम
तीर्थङ्कर पुण्य वाले हो गये। अन्ते सन्यासरीत्या च प्राणान् त्यक्त्वा सुखेन हि | प्रेययके सुभद्राख्ये विमाने चाहमिन्द्रताम् ।।१४।। सम्प्राप्य सप्तविंशत्या सागरस्यायुषा युतः।
सार्धद्विहस्तकायोऽसौ बभूव तपसोज्ज्वलः ।।१५।। अन्वयार्थ – अन्ते = अन्त समय में, सुर्खन = सुख से, हि = ही, असौ
= उन मुनिराज ने, सन्यासरीत्या = सन्यासमरण द्वारा. प्राणान् = प्राणों को, त्यक्त्वा = छोड़कर, च = और. ग्रैवेयके = ग्रैवेयक में, सुभद्राख्ये = सुभद्र नामक, विमाने = विमान में, अहमिन्द्रताम् = अहमिन्द्रत्व को, सम्प्राप्य = प्राप्त करके, सागरस्य = सागर की, सप्तविंशत्या = सत्ताइस, आयुषा = आयु से. युतः = युक्त. सार्धद्विहस्तकायः = ढाई हाथ ऊँचे शरीर वाला, तपसोज्ज्वलः = तपसोज्ज्वल नामक अहमिन्द्र
देव, बमूव = हुआ। श्लोकार्थ – अन्त समय में उन मुनिराज ने सन्यास मरण लेकर सुखपूर्वक
प्राणों को छोड़ दिया और ग्रैवेयक के सुभद्र विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त कर तपसोज्ज्वल नामक देव हो गये। वहाँ उनकी आयु सत्ताइस सागर और शरीर ढाई हाथ ऊँचा था।