Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
१२१
चतुर्थः श्लोकार्थ ~~ एक दिन महल के पर गये और सिंहासन पर बैठे राजा
ने आकाश में पंचरंगी बादलों को उत्पन्न होते हुये और नष्ट होते हुये देखकर जल्दी ही वैराग्य को प्राप्त कर लिया। लौकान्तिक देवों ने इसकी अनुमोदना की तथा लौकान्तिक देवों द्वारा नमस्कार किया जाता हुआ एवं देवों द्वारा जिसका उत्सव किया गया है और जो देवताओं द्वारा वहन की गई पालकी में बैठा है उस राजा ने स्वयं दीक्षित होकर माघ शुक्ला के दिन पुनर्वसु नक्षत्र में परम पावन स्वरूप वाली दीक्षा को
ग्रहण कर लिया। मतिश्रुत्ययधिज्ञानस्त्रिभिः पूर्वमेव समुज्ज्वलन् । दीक्षानन्तरमेवासी चतुर्थज्ञानमवाप च ।।३५।। अन्वयार्थ – च = और, त्रिभिः = तीनों, मतिश्रुत्यवधिज्ञानैः = मतिज्ञान,
श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान से, पूर्वमेव = पहिले से ही, समुज्ज्वलन् = सम्यक उज्ज्वलित होते हुये, असौ = उन प्रभु ने, दीक्षानन्तरम् = दीक्षा लेने के बाद, एव = ही,
चतुर्थज्ञानं = चौथे मनःपर्ययज्ञान को, अवाप = प्राप्त किया। श्लोकार्थ .- तथा मति ज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान तीनों से पहिले ही
सम्यक उज्ज्वलित होते हुये उन प्रभु ने दीक्षा लेने के बाद ही चौथे मनःपर्ययज्ञान को प्राप्त कर लिया। द्वितीयेऽहिनगतेऽयोध्यायामिन्द्रदत्तनृपार्चितः।
क्षीरान्नं हि चकारासौ तपोऽरण्यं गतः पुनः । ।३६।। अन्वयार्थ – द्वितीये - दूसरा, अहिलगते = दिन बीत जाने पर,
इन्द्रदत्तनृपार्चितः = राजा इन्द्रदत्त से पूजित होते हुये, असौ = उन्होंने, अयोध्यायां = अयोध्या नगरी में, हि = ही, क्षीरान्नं = क्षीरान्न भोजन, चकार = किया, पुनः = फिर. तपोऽरण्यं
= तपोवन को, गतः = चले गये। श्लोकार्थ – दूसरा दिन बीत जाने पर उन मुनिराज ने अयोध्या में राजा
इन्द्रदत्त से पूजित होते हुये क्षीरान्न का भोजन किया तथा पनः तपोवन में चले गये।