Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पञ्चमः
विशेषार्थ
अन्वयार्थ
१६३
की वन्दना करके, उसकी सम्यक् अर्चना करके और अष्टविध द्रव्यों अर्थात् जल, चन्दन, अक्षत आदि से की गयी पूजा द्वारा बार-बार सिद्ध भगवन्तों को प्रणाम करके तथा पुत्र के लिये राज्य सौंपकर सम्मेदशिखर की यात्रा स्वरूप तीर्थवन्दना के पुण्य से उस राजा ने घातिकर्म का क्षय हो जाने से मुक्तिस्थान अर्थात् सिद्धाप्त कर लिया।
यहाँ संक्षेप कथन किया गया है अतः निम्न बातें और कहीं हुयी समझ लेना चाहिये
(१) पुत्र को राज्य देकर राजा ने मुनि दीक्षा ली।
(२) फिर तपश्चरण पूर्वक शुक्लध्यान से ही चार घातिया कर्मों का क्षय किया ।
(३) घातिकर्मों के क्षय के बाद अघातिकर्मों का क्षय होने पर ही सिद्ध पाया ।
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इस प्रकार सम्मेदशिखर की तीर्थवन्दना करने रूप पुण्य के द्वारा राजा को मुनिदीक्षा अङ्गीकार करने और मुक्ति के लिये आवश्यक पुरुषार्थ करने का सुअवसर प्राप्त हो गया । योगं यत्र विधाय निर्मलतरं कर्मान्धकारार्कभम् । कायोत्सर्गविधानतो मुनिवरैः सार्धं सहस्रैः प्रभुः ।। सिद्धस्थानमवाप नाम सुमतिः सम्मेदपृथ्वीभृतः । कूटायाविचलाय सन्ततनमस्कारो विधेयो बुधैः ।।७७ ।। यत्र यहाँ, कर्मान्धकारार्कभम् - कर्म रूपी अन्धकार को दूर करने में सूर्य के समान, निर्मलतरं = अत्यंत निर्मल परिणामों वाले योगं शुक्लध्यान से मन, वचन, काय को एकाग्र निश्चल करने रूप योग को, विधाय = करके, प्रभुः = प्रभु, सुमतिः = सुमतिनाथ ने सहस्रैः = हजारों, मुनिवरै: मुनिराजों के, सार्धं = साथ, कायोत्सर्ग विधानतः = कायोत्सर्ग विधान से सिद्धस्थानम् = सिद्ध पद को अवाप = प्राप्त किया (इति इसलिये), नाम = निःसन्देह होकर, बुधैः = विद्वज्जनों द्वारा सम्मेदपृथ्वीभृतः = सम्मेदशिखर नामक पर्वत की, अविचलाय = अविचल, कूटाय कूट-टॉक
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