Book Title: Sammedshikhar Mahatmya
Author(s): Devdatt Yativar, Dharmchand Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पञ्चमः
१६१ वाले के लिये, दीक्षा = मुनिदीक्षा, नहि = नहीं, प्रोक्ता = कही गयी है, तर्हि = तो, राज्ञा = राजा द्वारा, उक्तं = कहा गया, भो स्वामिन् = हे स्वामी!, भवे = इस भव में, तत्सङ्गतिः = उस दीक्षा की सङ्गति, (मे = मुझे), कथं = कैसे, (भवेत् = होगी) पुनः = फिर, तेन = मुनिराज द्वारा, उक्तम् = कहा गया, उर्वीश = पृथ्वीपति राजन!, सम्मेदगिरियात्रया = सम्मेदशिखर की तीर्थवन्दना रूप यात्रा से, शीघ्र = जल्दी. एव = ही, मुक्तिः = मुक्ति, भवति = होती है, तच्छ्रुत्वा = उसे सुनकर, सः = वह राजा, हर्ष = प्रसन्नता को, प्राप =
प्राप्त हुआ। श्लोकार्थ – मुनिराज की तीन परिक्रमा करके और उन्हें प्रणाम करके हाथ
जोड़े हुये राजा ने मुनिराज से पूछा-स्वामिन! मेरी आयु अब कितनी शेष है। मुनिराज मुस्कुराते हुये बोले-हे राजन्! तुम्हारी आयु अब मात्र तेरह माह शेष है। मुनिराज से इस प्रकार अपनी अल्प आयु जानकर राजा मुनिदीक्षा ग्रहण करने की इच्छा वाला हो गया। किन्तु पृथ्वीतल पर विद्यमान उन मुनिराज ने कहा- राजन् अल्प आयु वालों के लिये दीक्षा नहीं कही गयी है। राजा ने पूछा- तो फिर इस भव में मुझे उसकी सङ्गति कैसे होगी? उत्तर में मुनिश्री ने कहा-हे उर्वीश! सम्मेदशिखर की तीर्थचन्दना करने से अर्थात् उसके निमित्त से जल्दी ही मुक्ति हो जाती है। मुनिराज के ऐसे
उन वचनों को सुनकर वह राजा अत्यंत हर्ष को प्राप्त हुआ। सत्यरं सङ्घसहित: शुक्लाम्बरधरो नृपः ।
मोक्षाभिलाषया यात्राप्रस्थानमकरोत्तदा।।७३।। अन्वयार्थ - तदा = तब, (सः = उस), नृपः = राजा ने, मोक्षामिलाषया
= मोक्ष की अभिलाषा से, सत्वरं = जल्दी ही, शुक्लाम्बरधरः = सफेद वस्त्र धारण करते हुये, सङ्घसहितः = चतुर्विध संघ के साथ. यात्राप्रस्थानं = यात्रा के लिये प्रस्थान. अकरोत् =
किया। श्लोकार्थ - तब उस राजा ने मोक्ष की अभिलाषा से जल्दी ही श्वेत वस्त्र