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छूटना ही है ऐसी भावना सतत करता रहे, प्रत्येक दोष का खूब पछतावा करे, हक़ के विषय के भी प्रतिक्रमण करता रहे तो अगले जन्म में स्त्री परिग्रह से मुक्ति का उदय आएगा। जिन्हें इस अद्भुत 'अक्रमविज्ञान' का संपूर्ण लाभ उठाकर इसी जन्म में आत्मा के स्पष्टवेदन तक की दशा प्राप्त करनी हो, उन्हें तो फिर 'ज्ञानीपुरुष' से समझकर ब्रह्मचर्यव्रत की आज्ञाविधि प्राप्त कर लेनी पड़ेगी। जहाँ खुद का दृढ़ निश्चय और 'ज्ञानीपुरुष' का वचनबल, ये दोनों साथ हों तो वहाँ पर अवश्य निर्विघ्न रूप से सिद्धि प्राप्त होगी ही। मात्र खुद के निश्चय के प्रति दृढ़ता से 'सिन्सियर' रहना पड़ेगा। उसमें ज़रा सी भी पोल नहीं चलेगी। यह तो निश्चय करने में ही पोल (ढीलापन, दानतखोरी) रहती है कि, 'ये सभी तो अक्रमज्ञान में रहते हैं और विषय भी भोगते हैं, तो इसमें हर्ज क्या है? हमें व्रत की क्या ज़रूरत? 'ज्ञान' तो मिल ही गया है, निपटारा तो हो ही जाएगा न, फिर विषय में क्या हर्ज है ? विषय तो 'डिस्चार्ज' है न, इसलिए छूटेगा ही नहीं न? अंतिम जन्म में ब्रह्मचर्य पालन करेंगे, तब भी क्या मोक्ष रुक जाएगा? आपके स्थूल विषय भले ही न छूटें, लेकिन आपकी भावना तो ब्रह्मचर्य पालन की ही है न? फिर कोई तकलीफ नहीं आएगी।' ऐसे बुद्धि अंदर ही अंदर तरह-तरह की 'पोल' दिखा-दिखाकर खुद की प्रगति को रूंधनेवाले आवरण खड़े कर देती है। अतः बुद्धि का एक भी अक्षर सुने बगैर, 'ज्ञानीपुरुष' किस दृष्टि से बात को समझाना चाहते हैं, उसे 'एक्ज़ेक्टनेस' में समझकर, सही अर्थ में खुद के निश्चय पर अडिग रूप से 'सिन्सियर' रहेगा तभी विषय को जीत पाएगा, और तभी ये जो 'ज्ञानीपुरुष' मिले हैं, उसमें खुद का काम निकल जाएगा।
__ अब, एक ही बार किया गया विषय सेवन महीनों तक ध्यान कि एकाग्रता की स्थिरता में बाधक सिद्ध होता है। तो जिसे पुद्गल ध्यान में से छूटकर आत्मध्यान में ही लीन होना है, उनके लिए मात्र विषयसेवन ही सबसे अधिक बाधक है और जिन्हें ऐसा एक ही ध्येय और निश्चय बरतता है कि मोक्ष के सिवाय और कुछ भी नहीं चाहिए, उनके लिए विषय जो कि पुद्गल स्पृहा, पुद्गल रमणता ही है, वही सबसे बड़ा अंतराय बन जाता है। अतः भावना ब्रह्मचर्य की हो, ध्येय शुद्धात्मा का और नियाणां