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द्वार १२९-१३०
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१२९ द्वार :
आलोचनादायक
सल्लुद्धरणनिमित्तं गीयस्सऽन्नेसणा उ उक्कोसा। जोयणसयाइं सत्त उ बारस वासाइं कायव्वा ॥८६२ ॥
-गाथार्थआलोचना दाता की गवेषणा–शल्योद्धार के लिये गीतार्थ की खोज उत्कृष्टत: क्षेत्र की अपेक्षा से सात सौ योजन तक एवं काल की अपेक्षा से बारह वर्ष पर्यन्त करना चाहिये ।।८६२ ।।
-विवेचन___ आत्मा में लगे हुए पाप रूपी काँटे को निकालने के लिये आलोचना करना अति आवश्यक है। इसके लिये आलोचना देने योग्य गीतार्थ गुरु यदि क्षेत्र व काल की अपेक्षा से समीप न मिले तो क्षेत्र की अपेक्षा से सात सौ योजन तक एवं काल की अपेक्षा से बारह वर्ष तक खोज करनी चाहिये। यदि योग्य गुरु न मिले और आलोचक आलोचना के बिना ही मर जाये, फिर भी विशुद्ध अध्यवसायी होने से वह आराधक है। खोजने पर भी यदि सर्वगुणसंपन्न गुरु न मिले तो संविग्न गीतार्थ से आलोचना ग्रहण करे।
अपवाद-गीतार्थ, संविग्न-पाक्षिक, सिद्ध-पुत्र, प्रवचन-देवता आदि योग्य आलोचना दाता के न मिलने पर अंत में सिद्ध भगवान की साक्षी में आलोचना करे किंतु आलोचना के बिना नहीं मरे, क्योंकि सशल्य-मृत्यु संसार-वृद्धि का कारण है। कहा है-संविग्न गीतार्थ के अभाव में पार्श्वस्थादि से ही आलोचना ग्रहण करे ॥८६२ ॥
|१३० द्वार:
प्रति-जागरण
जावज्जीवं गुरुणो असुद्धसुद्धेहिं वावि कायव्वं । वसहे बारस वासा अट्ठारस भिक्खुणो मासा ॥८६३ ॥
-गाथार्थगुरु-शुश्रूषा काल प्रमाण-गुरु की शुश्रूषा अशुद्ध-शुद्ध द्रव्य के द्वारा यावज्जीव पर्यंत करनी चाहिये।
वृषभ साधुओं की बारह वर्ष पर्यंत तथा सामान्य मुनि की अट्ठारह मास पर्यन्त करनी चाहिये ।।८६३ ॥
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