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द्वार २७०
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(i) कर्म आशीविष-पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य और आठवें सहस्रार देवलोक तक के देवता आदि अनेक प्रकार के जीव कर्म आशीविष हैं। ये जीव तप-चारित्र आदि अनुष्ठान के द्वारा अथवा अन्य किसी गुण से आशीविष साँप, बिच्छु, नाग आदि से साध्य-क्रिया करने में समर्थ होते हैं। अर्थात् ये शाप आदि देकर दूसरों का नाश करते हैं।
देवों में यह लब्धि अपर्याप्त-अवस्था में ही होती है। कोई जीव प्राक्-भव सम्बन्धी लब्धि के संस्कार को लेकर देवता में उत्पन्न होता है उसे ही अपर्याप्तावस्था में यह लब्धि रहती है। पर्याप्त अवस्था में लब्धि-निवृत्त हो जाती है। जो देवता पर्याप्तावस्था में शापादि प्रदान करते हैं, वह उनकी भव-प्रत्ययिक शक्ति का परिणाम है और ऐसी शक्ति सभी देवों में होती है। जबकि लब्धि वही कहलाती है, जो विशिष्ट साधना एवं आराधना से उत्पन्न होती है । (ii) जाति आशीविष के ४ प्रकार हैं
(अ) वृश्चिक – बिच्छू के जहर की असर अर्ध-भरत प्रमाण शरीर में हो सकती
(ब) मेंढक (स) सर्प (द) मनुष्य
- मेंढक के जहर की असर भरत प्रमाण शरीर में हो सकती है। - सर्प के विष की असर जंबू-द्वीप प्रमाण शरीर में हो सकती है। - मनुष्य के जहर की असर ढाई-द्वीप प्रमाण शरीर में हो सकती
(१३) गणधर लब्धि-जिस लब्धि के प्रभाव से व्यक्ति द्वादशांगी का प्रणेता तीर्थंकर परमात्मा का प्रधान शिष्य गणधर बनता है।
(१४) पूर्वधर लब्धि-तीर्थंकर परमात्मा द्वादशांगी का मूल आधारभूत जो सर्वप्रथम उपदेश गणधरों को देते हैं, वह पूर्व कहलाता है। गणधर उस उपदेश को सूत्र रूप में व्यवस्थित करते हैं। पूर्व की संख्या चौदह है, जिन्हें दस से चौदह पूर्व का ज्ञान होता है, वे पूर्वधर कहलाते हैं। जिस लब्धि के प्रभाव से पूर्वो का ज्ञान प्राप्त होता है, वह पूर्वधर लब्धि कहलाती है।
(१५) अर्हत् लब्धि-जिस लब्धि के प्रभाव से अर्हत् पद प्राप्त होता है।
(१६) चक्रवर्ती लब्धि—जिस लब्धि के प्रभाव से चक्रवर्ती पद की प्राप्ति होती है। चक्रवर्ती चौदह रत्न और छ: खण्ड का स्वामी होता है।
(१७) बलदेव लब्धि-जिस लब्धि के प्रभाव से बलदेव पद की प्राप्ति होती है।
(१८) वासुदेव लब्धि—जिस लब्धि के प्रभाव से वासुदेव पद की प्राप्ति होती है। वासुदेव सात रत्न और त्रिखण्ड का अधिपति होता है।
(१९) क्षीरमधुसर्पिराश्रव लब्धि-जिस लब्धि के प्रभाव से वक्ता का वचन, श्रोता को दूध, मधु और घृत के स्वाद की तरह मधुर लगता है जैसे, वज्रस्वामी आदि के वचन सुनने में अति मधुर लगते थे । यहाँ यह तात्पर्य है कि गन्ने का चारा चरने वाली एक लाख गायों का दूध पचास हजार गायों को....उनत्या दूध..पच्चीस हजार गायों को....इस प्रकार आधा-आधा करके अंत में एक गाय को
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