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द्वार २७६
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२७६ द्वार:
सिद्ध-गुण
नव दरिसणंमि चत्तारि आउए पंच आइमे अंते। सेसे दो दो भेया खीणभिलावेण इगतीसं ॥१५९३ ॥ पडिसेहण संठाणे य वन्नगंधरसफासवेए य। पण पण दु पणट्ठ तिहा एगतीसमकायऽसंगऽरुहा ॥१५९४ ॥
-गाथार्थसिद्ध के इकतीस गुण-दर्शनावरण के नौ भेद आयुष्य के चार भेद, ज्ञानावरण के पाँच भेद, अन्तराय के पाँच भेद, शेष कर्मों के दो-दो भेद-इन सभी भेदों के साथ 'क्षय' शब्द जोड़ने से सिद्ध के इकतीस भेद होते हैं ।।१५९३ ॥
संस्थान, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और वेद-इनके क्रमशः पाँच, पाँच, दो, पाँच और आठ भेद हैं। इन्हें प्रतिषेधमुखेन बोलना तथा इनमें अकायत्व, असंगत्व और अरुहत्व जोड़ना-इस प्रकार भी सिद्ध के इकतीस गुण होते हैं ॥१५९४ ॥
-विवेचन५ ज्ञानावरणीय
पूर्वोक्त ३१ प्रकृतियों का क्षय होने से ९ दर्शनावरणीय
उत्पन्न ३१ गुण वाले सिद्ध परमात्मा हैं। ४ आयु ५ अन्तराय २ शुभ-अशुभ नामकर्म २ साता-असातावेदनीय २ दर्शनमोह-चारित्रमोह २ ऊँच-नीचगोत्र
अथवा
५ संस्थान = शारीरिक रचना विशेष, आकार विशेष। जिसके द्वारा वस्तु ठहरती है वह संस्थान
(१) परिमंडल (चूड़ी की तरह गोलाकार) (२) वृत्त (गोलाकार, भीतर-बाहर ठोस दर्पण की तरह) (३) त्रयस्र (सिंघाड़े की तरह तिकोन)
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