SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 459
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वार २७६ ४४२ २७६ द्वार: सिद्ध-गुण नव दरिसणंमि चत्तारि आउए पंच आइमे अंते। सेसे दो दो भेया खीणभिलावेण इगतीसं ॥१५९३ ॥ पडिसेहण संठाणे य वन्नगंधरसफासवेए य। पण पण दु पणट्ठ तिहा एगतीसमकायऽसंगऽरुहा ॥१५९४ ॥ -गाथार्थसिद्ध के इकतीस गुण-दर्शनावरण के नौ भेद आयुष्य के चार भेद, ज्ञानावरण के पाँच भेद, अन्तराय के पाँच भेद, शेष कर्मों के दो-दो भेद-इन सभी भेदों के साथ 'क्षय' शब्द जोड़ने से सिद्ध के इकतीस भेद होते हैं ।।१५९३ ॥ संस्थान, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और वेद-इनके क्रमशः पाँच, पाँच, दो, पाँच और आठ भेद हैं। इन्हें प्रतिषेधमुखेन बोलना तथा इनमें अकायत्व, असंगत्व और अरुहत्व जोड़ना-इस प्रकार भी सिद्ध के इकतीस गुण होते हैं ॥१५९४ ॥ -विवेचन५ ज्ञानावरणीय पूर्वोक्त ३१ प्रकृतियों का क्षय होने से ९ दर्शनावरणीय उत्पन्न ३१ गुण वाले सिद्ध परमात्मा हैं। ४ आयु ५ अन्तराय २ शुभ-अशुभ नामकर्म २ साता-असातावेदनीय २ दर्शनमोह-चारित्रमोह २ ऊँच-नीचगोत्र अथवा ५ संस्थान = शारीरिक रचना विशेष, आकार विशेष। जिसके द्वारा वस्तु ठहरती है वह संस्थान (१) परिमंडल (चूड़ी की तरह गोलाकार) (२) वृत्त (गोलाकार, भीतर-बाहर ठोस दर्पण की तरह) (३) त्रयस्र (सिंघाड़े की तरह तिकोन) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy