SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 460
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचन-सारोद्धार ४४३ 140554511001010100 0000014500014 (४) चतुरस्र (चौकी आदि की तरह चोकोर) (५) आयत (लंबा-दण्डाकार) अन्य भी घन, प्रतर आदि अनेक आकार हैं जो उत्तराध्ययन की वृहत्ति से समझना चाहिये। ५ वर्ण २ गंध ६ स्पर्श (१) गुरु (१) श्वेत (२) पीत (३) रक्त । नील (५) श्याम (१) सुरभि (२) असुरभि ३ वेद (१) स्त्रीवेद (२) पुरुषवेद (३) नपुंसकवेद (१) तिक्त (२) कटु (३) कषाय (४) खट्टा (५) मीठा (४) कर्कश (५) शीत (६) उष्ण (७) स्निग्ध (८) रूक्ष । संस्थानादि २८ पौद्गलिक भावों के क्षीण होने से २८ गुण युक्त तथा निम्न ३ गुण सहित = ३१ गुणयुक्त सिद्ध परमात्मा है। (१) अकाय = औदारिक आदि ५ शरीर से रहित । (२) असंग = बाह्य-आभ्यन्तर संग रहित । (३) अरुह = संपूर्ण कर्म-बीज के जल जाने से जो पुन: संसार में नहीं आते। संस्थान आदि का अभाव और अकायत्वादि गुणों का सद्भाव सिद्धों में प्रसिद्ध है। आचारांग में कहा है कि “से न दीहे, न वडे, न तंसे, न चउरसे न परिमंडले। न किण्हे, न नीले, न लोहिए, न हालिहे, न सुक्किले । न सुब्भिगंधे, न दुब्भिगंधे। न तित्ते, न कडुए, न कसाए न अंबिले, न महुरे, न कक्खड़े। न मउए, न गरुए, न लहुए, न सीए, न उण्हे, न निः न लुक्खे न काए, न संगे, न रुहे, न इत्थीए, न पुरिसे, न नपुंसे।" (अ. ५) इत्यादि। सिद्ध गुणों का प्रतिपादक यह द्वार उत्कृष्ट मङ्गलरूप है। ग्रन्थ के अन्त में इस द्वार का कथन अन्तिम मङ्गल के रूप में किया गया है ताकि यह ग्रन्थ शिष्य-प्रशिष्यादि परंपरा पर्यन्त अविच्छिन्न रूप से यथावत् प्रचलित रहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy