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________________ द्वार २७६ ४४४ इस द्वार की समाप्ति के साथ २७६ द्वारों की व्याख्या पूर्ण हुई और इसकी पूर्णता के साथ प्रस्तुत प्रवचनसारोद्धार नामक ग्रन्थ भी संपूर्ण हुआ। कहा है कि 'बीज के जल जाने पर कभी अङ्कर पैदा नहीं हो सकता वैसे कर्म के बीजभूत राग-द्वेष आदि के क्षय हो जाने पर जन्म-मरण के अङ्कर उत्पन्न नहीं होते।' ॥१५९३-९४ ॥ मूल-ग्रन्थकार-प्रशस्ति धम्मधुरधरणमहावराहजिणचंदसूरिसिस्साणं । सिरिअम्मएवसूरीण पायपंकयपराएहिं ॥१५९५ ॥ सिरिविजयसेणगणहरकणिट्ठजसदेवसूरिजिडेहिं । सिरिनेमिचंदसूरिहिं सविणयं सिस्सभणिएहिं ॥१५९६ ॥ समयरयणायराओ रयणाणं पिव समत्थदाराई। निउणनिहालणपुव्वं गहिउं संजत्तिएहिं व ॥१५९७ ॥ पवयणसारुद्धारो रइओ सपरावबोहकज्जंमि। जंकिंचि इह अजुत्तं बहुस्सुआ तं विसोहंतु ॥१५९८ ॥ सा विजयइ भुवणत्तयमेयं रविससिसुमेरुगिरिजुत्तं । पवयणसारुद्धारो ता नंदउ बुह पढिज्जंतो ॥१५९९ । अर्थ-धर्मरूपी पृथ्वी का उद्धार करने में महावराह समान श्री जिनचन्द्रसूरिजी के शिष्य, श्री आम्रदेवसूरि जी के चरण कमल के पराग तुल्य श्री विजयसेनसूरि के लघु गुरु-बन्धु तथा यशोदेवसूरि के बड़े गुरु-बन्धु श्री नेमिचन्द्रसूरिजी ने शिष्यों के विनम्र निवेदन से प्रेरित होकर जैसे नाविक समुद्र में से रत्नों को निकालता है वैसे कुशल-परीक्षणपूर्वक सद् अर्थयुक्त द्वारों को सिद्धान्तरूप सिन्धु से उद्धृत कर स्व-पर के बोध-हेतु प्रवचनसारोद्धार नामक ग्रन्थ की रचना की है। इस ग्रन्थ में जो कुछ भी अयुक्त लगे, बहुश्रुत-गीतार्थ उसमें अवश्य संशोधन करें ।।१५९५-९८ ॥ चन्द्र, सूर्य और सुमेरु पर्वत से युक्त यह भुवनत्रय जब तक विजयवन्त है तब तक विद्वानों के द्वारा पढ़ा जाता हुआ यह 'प्रवचनसारोद्धार' नामक ग्रन्थ वृद्धि को प्राप्त करे ॥१५९९ ।। -विवेचनअब ग्रन्थकर्ता निम्न श्लोकों द्वारा गुरु परम्परा का उल्लेख करते हुए अपना नाम, ग्रन्थ रचना का प्रयोजन व अपनी विनम्रता का भी सूचन करते हैं जैसे विष्णु ने वराह अवतार धारण कर, पृथ्वी का उद्धार किया वैसे श्रीजिनचन्द्रसूरि ने जीवादि पदार्थों के आधारभूत धर्म की दो तरह से रक्षा की। प्रथम तो उसके स्वरूप को दूषित होने से बचाया, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
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