SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 462
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचन-सारोद्धार दूसरा उसकी यथार्थता को प्रतिष्ठित किया। अत: जिनचन्द्रसूरि महावराह तुल्य हुए। उनके शिष्य आम्रदेवसूरि हुए। उनके चरण कमल में पराग सदृश श्रीमान् विजयसेनसूरि व उनके कनिष्ठभ्राता श्री यशोदेवसूरि हुए। श्रीयशोदेवसूरि के प्रधान शिष्य श्रीनेमिचन्द्रसूरि ने शिष्यों की विनम्र प्रार्थना स्वीकार कर इस ग्रन्थ की रचना की। जैसे कुशल नाविक समुद्र से बड़ी कुशलतापूर्वक बहुमूल्य रत्न निकाल लेते हैं, वैसे शास्त्ररूप अथाह सागर से रत्नों की तरह बहुमूल्य, विशिष्ट अर्थ वाले २७६ द्वारों को परीक्षणपूर्वक ग्रहण कर मैंने (श्रीनेमिचन्द्रसूरि) स्व-पर के ज्ञान के लिये प्रवचनसारोद्धार नामक ग्रन्थ की रचना की। इस रचना में अज्ञानवश कुछ असंगत कहा गया हो तो बहुश्रुत गीतार्थ महापुरुष उसका संशोधन करने की कृपा करें ॥१५९५-९८ ।।। यह सत्य है कि परिणाम भवितव्यता के अनुसार ही मिलता है तथापि शुभाशय फलदायी होने से आशंसा सदा शुभ फल की ही करनी चाहिये। अत: ग्रन्थ के लिये शुभ कामना करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं___जब तक स्वर्ग, मृत्यु व पाताल इन तीनों लोकों का अस्तित्व है, जब तक चन्द्र और सूर्य मेरुपर्वत की परिक्रमा करते हैं तब तक यह प्रवचनसारोद्धार ग्रन्थ तत्त्वज्ञों के द्वारा पढ़ा जाता हुआ शिष्य-प्रशिष्यादि परम्परा पर्यन्त अव्यवच्छिन्न रूप से प्रचलित होता रहे। टीकाकार-प्रशस्ति | सिद्धान्तादिविचित्रशास्त्रनिकरव्यालोकनेन क्वचित्, क्वाप्यात्मीयगुरूपदेशवशत: स्वप्रज्ञया च क्वचित् । ग्रन्थेऽस्मिन् गहनेऽपि शिष्यनिवहैरत्यर्थमभ्यर्थित स्तत्त्वज्ञानविकाशिनीमहमिमां वृत्तिं सुबोधां व्यधाम् ॥ १॥ मेधामन्दतया चलाचलतया चित्तस्य शिष्यावली शास्त्रार्थप्रतिपादनादिविषयव्याक्षेपभूयस्तया। यत्सिद्धान्तविरुद्धमत्र किमपि ग्रन्थे निबद्धं मया, तद्भूतावहितैः प्रपञ्चितहितैः शोध्यं सुधीभि: स्वयम् ॥ २ ॥ श्रीचन्द्रगच्छगगने प्रकटितमुनिमण्डलप्रभाविभवः । उदगान्नवीनमहिमा श्रीमदभयदेवसूरिरविः ॥ ३ ॥ तार्किकागस्त्यविस्तारिसत्प्रज्ञाचुलुकैश्चिरम्। वर्धते पीयमानोऽपि येषां वादमहार्णवः ।। ४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001717
Book TitlePravachana Saroddhar Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhashreeji
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2000
Total Pages522
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy