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प्रवचन-सारोद्धार
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(४) चतुरस्र (चौकी आदि की तरह चोकोर) (५) आयत (लंबा-दण्डाकार) अन्य भी घन, प्रतर आदि अनेक आकार हैं जो उत्तराध्ययन की वृहत्ति से समझना चाहिये। ५ वर्ण २ गंध
६ स्पर्श
(१) गुरु
(१) श्वेत (२) पीत (३) रक्त
। नील (५) श्याम
(१) सुरभि (२) असुरभि
३ वेद (१) स्त्रीवेद (२) पुरुषवेद (३) नपुंसकवेद
(१) तिक्त (२) कटु (३) कषाय (४) खट्टा (५) मीठा
(४) कर्कश (५) शीत (६) उष्ण (७) स्निग्ध (८) रूक्ष ।
संस्थानादि २८ पौद्गलिक भावों के क्षीण होने से २८ गुण युक्त तथा निम्न ३ गुण सहित = ३१ गुणयुक्त सिद्ध परमात्मा है।
(१) अकाय = औदारिक आदि ५ शरीर से रहित । (२) असंग = बाह्य-आभ्यन्तर संग रहित । (३) अरुह = संपूर्ण कर्म-बीज के जल जाने से जो पुन: संसार में नहीं आते।
संस्थान आदि का अभाव और अकायत्वादि गुणों का सद्भाव सिद्धों में प्रसिद्ध है। आचारांग में कहा है कि
“से न दीहे, न वडे, न तंसे, न चउरसे न परिमंडले। न किण्हे, न नीले, न लोहिए, न हालिहे, न सुक्किले । न सुब्भिगंधे, न दुब्भिगंधे। न तित्ते, न कडुए, न कसाए न अंबिले, न महुरे, न कक्खड़े। न मउए, न गरुए, न लहुए, न सीए, न उण्हे, न निः न लुक्खे न काए, न संगे, न रुहे, न इत्थीए, न पुरिसे, न नपुंसे।"
(अ. ५) इत्यादि। सिद्ध गुणों का प्रतिपादक यह द्वार उत्कृष्ट मङ्गलरूप है। ग्रन्थ के अन्त में इस द्वार का कथन अन्तिम मङ्गल के रूप में किया गया है ताकि यह ग्रन्थ शिष्य-प्रशिष्यादि परंपरा पर्यन्त अविच्छिन्न रूप से यथावत् प्रचलित रहे।
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