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प्रवचन-सारोद्धार
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लायकदाद-55
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सती तुल्य सोलह शिष्यायें, अर्पित की जिनशासन को। हुआ सुशोभित प्रवर्तिनी पद, पाकर विरल विभूति को ॥ २७ ॥ शिष्या उनकी अनुभवश्रीजी, गुरुवर्या मेरी प्यारी । जैसा अन्दर वैसा बाहर, जीवन-शैली थी न्यारी॥ ज्ञान-ध्यान-संयम साधन ही, जिनका सच्चा जीवन था। सात्त्विकता से ओतप्रोत, तात्त्विकता का वह सावन था ॥ २८ ॥ तत्त्वचिंतना आत्मरमणता, में हरपल वह रहती थी। देह-व्याधि से ग्रस्त बना, पर हँसते-हँसते सहती थी। तेज नयन फैलाते रहते, आत्म-ज्योति का दिव्यप्रकाश । गुरुवर्या अनुभवश्री तुमने, साध लिया निज आत्म विकास ॥ २९ ॥ पुण्ययोग से बचपन में ही, पाया तब शरणा मैंने। जन्म भले ही दिया मात ने, सिखलाया जीना तुमने ॥ भव-भव मिले तुम्हारा शरणा, प्रभु से विनती है हरदम । उपकृति तेरी भुला सकू ना, देना आशीष जनम-जनम ॥ ३० ॥ प्रवचन-सारोद्धार ग्रन्थ का, कार्य कठिन अनुसर्जन का। गुरु-कृपा से पूर्ण हुआ, श्रम दूर हुआ सब तन-मन का ॥ जिसका जिसको अर्पित करके, हृदय प्रफुल्लित है मेरा। पढ़े-पढ़ावे सुज्ञ शिष्टजन, टूटे कर्मों का घेरा ॥ ३१ ॥ दिक्-शर-ख-चक्षुमितवर्षे (२०५४) फाल्गुन मास मनोहारी। एकादशवीं पुण्यतिथि, शनिवार तीज दिन सुखकारी ॥ पूना दादावाड़ी मध्ये, कुशलगुरु के चरणन में। पूर्ण किया अनुसृजन रूप यह, ग्रन्थ पुष्प गुरु समरण में ॥ ३२ ॥ आत्म-साधिका अनुभव गुरु की, शिष्या हेमप्रभा सुज्ञा । क्षय-उपशम अनुसार रचा यह, शोधे पण्डित जन प्रज्ञा । यावच्चन्द्र दिवाकर जयतु, ज्ञाननिधि जिन वचन प्रमाण । श्रुत सेवा से मिले क्षिप्रतर, सम्यग्दर्शन-मोक्ष विधान ॥ ३३ ॥
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