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प्रवचन-सारोद्धार
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यत्तीव्रव्रतमुद्रया कति न चानीयन्त चित्रं जना,
यद्वा किं बहुजल्पितेन निखिलं यत्कृत्यमत्यद्भुतम् ॥ १६ ॥ तेषां गुणिषु गुरूणां शिष्य: श्रीसिद्धसेनसूरिरिमाम् । प्रवचनसारोद्धारस्य वृत्तिमकरोदतिस्पष्टाम् ॥ १७ ॥ करिसागररविसंख्ये (१२४८) श्रीविक्रमनृपतिवत्सरे चैत्रे । पुष्यार्कदिने शुक्लाष्टम्यां वृत्ति: समाप्ताऽसौ ॥ १८ ॥ तारकमुक्तोच्चूले शशिकलशे गगनमरकतच्छत्रे ।
दण्ड इव भवति यावत् कनकगिरिर्जयतु तावदियम् ॥ १९॥ वृत्तिकार सिद्धसेनसूरिपुरन्दर 'तत्वज्ञानविकाशिनी' टीका के अन्त में अपनी गुरु परम्परा का वर्णन तथा टीका करने का प्रयोजन बताते हुए कहते हैं
___ प्रयोजन-यह ग्रन्थ अतिगहन है। इसकी सुबोध टीका रचने की शिष्य समूह की प्रार्थना स्वीकार कर मैंने (सिद्धसेनसूरि ने) अनेक शास्त्रों का अवलोकन कर, अपने गुरु के उपदेश से तथा स्वप्रज्ञा से इस ग्रन्थ की 'तत्त्वज्ञानविकाशिनी' नाम की अत्यन्त सुबोध टीका की रचना की।
विनम्रता बुद्धि की मन्दता, चित्त की चञ्चलता, शिष्य समूह के अध्यापन की व्यस्तता आदि कारणों से इस ग्रन्थ में जो कुछ आगम-विरुद्ध कहा गया हो तो प्राणिमात्र के प्रति हितकारी प्रवृi
हितकारी प्रवृत्ति वाले विद्वान् उसका अवश्य संशोधन करें।
गुरु-परम्परा-चन्द्रगच्छ रूपी आकाश में मुनिमंडल रूपी प्रभा-वैभव से युक्त नवीन महिमाशाली श्री अभयदेवसूरि रूपी सूर्य उदय हुआ।
अगस्त्य ऋषि ने अपने चुल्लुओं के द्वारा समुद्र को पीकर शेष कर दिया पर अभयदेवसूरि का 'वादमहार्णव' (ग्रन्थ का नाम) ऐसा है कि जो तार्किक रूपी अगस्त्यों के सत्प्रज्ञारूपी चुल्लुओं द्वारा पिये जाने पर भी सतत बढ़ता ही रहता है।
धनेश्वरसूरि-उनके पश्चात् वाद के सागर रूप पुण्डरीक नामक वादी का मन्थन कर अर्थात् उसे जीतकर मुजभूपति के सम्मुख जिन्होंने जयश्री का वरण किया, ऐसे धनेश्वरसूरि हुए।
अजितसिंहसूरि-नूतन सूर्य के समान तेजस्वी, तप की गरिमा से अत्यन्त महिमाशाली ऐसे अजितसिंहसूरि हुए, जिनके ज्ञान का प्रकाश कहाँ स्फुरित नहीं था?
वर्धमानसूरि-श्री अजितसिंहसूरि के पश्चात् महान गुणनिधान श्री वर्धमानसूरि हुए। जो सोममूर्ति (चन्द्र) होने पर भी कभी क्षीण नहीं हुए अर्थात् चन्द्रमा कृष्णपक्ष में क्षीण हो जाता है पर वर्धमानसूरि का कलावैभव कभी क्षीण नहीं हुआ, सदा फैलता ही रहा।
देवचन्द्रसूरि-जैसे चन्द्रमा अपनी किरणों से जगत् के प्राणियों को सन्तुष्ट करता है वैसे अपनी वाणी रूपी किरणों से जगत के प्राणियों को सन्तुष्ट करने वाले श्री देवचन्द्रसूरि हुए। चन्द्रमा अंधकार से घिर जाता है पर देवचन्द्रसूरि ऐसे चन्द्र थे कि उन्हें अन्धकार छू भी नहीं सकता था।
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