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प्रवचन-सारोद्धार
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छोटे व बड़े सभी पाताल कलश लवण समुद्र में ही होते हैं। शेष समुद्रों में नहीं होते ।
लवण समुद्र के अति मध्य भाग में चारों दिशा में चार बृहदाकार पाताल कलश हैं। प्रत्येक कलश रत्नप्रभा पृथ्वी में १,००,००० योजन गहरे हैं। मध्यभाग में भी ये १,००,००० योजन विस्तृत हैं। इनका मुँह के पास विस्तार १०,००० योजन का है तथा इनका निम्न भाग भी इतना ही विस्तार वाला है। इनकी ठीकरी की मोटाई १००० योजन है। इनकी ऊँचाई के १ भाग में वायु, मध्य के ? भाग में जल तथा वायु तथा ऊपर के १ भाग में केवल जल है।
२७३ द्वार:
आहारक-शरीर
समओ जहन्नमंतरमुक्कोसेणं तु जाव छम्मासा । आहारसरीराणं उक्कोसेणं नव सहस्सा ॥१५८० ॥ चत्तारि य वाराओ चउदसपुवी करेइ आहारं । संसारम्मि वसंतो एगभवे दोन्नि वाराओ ॥१५८१ ॥ तित्थयररिद्धिसंदंसणस्थमत्थोवगहणहेउं वा। संसयवुच्छेयत्थं वा गमणं जिणपायमूलंमि ॥१५८२ ॥
-गाथार्थआहारक स्वरूप-आहारक शरीर का जघन्य अन्तर एक समय का तथा उत्कृष्ट अन्तर छ: महीने का है। उत्कृष्टत: आहारक शरीरी नौ हजार हैं। चौदह पूर्वधर संपूर्ण भवचक्र में चार बार आहारक शरीर बना सकते हैं और एक भव में दो बार कर सकते हैं ।।१५८०-८१॥
तीर्थंकर की ऋद्धि को देखने हेतु, सिद्धांत के अर्थ का बोध करने के लिये, अपने संशय का निराकरण करने के लिये चौदह पूर्वधर आहारक शरीर बनाकर जिनेश्वर परमात्मा के चरण कमल में जाते हैं ॥१५८२ ।।
-विवेचनआहारक शरीर = चौदहपूर्वधर मुनि, विशेष प्रयोजन से आहारक लब्धि द्वारा जिस शरीर की रचना करते हैं, वह आहारक शरीर है। वैक्रिय शरीर की अपेक्षा यह शरीर इतने स्वच्छ, शुभ पुद्गलों से बना हुआ होता है कि इसकी गति में पर्वत आदि व्यवधान नहीं डाल सकते।
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