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प्रवचन-सारोद्धार
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पिलाने पर उसका दूध एवं उससे बना मंद आंच पर पकाया हुआ, विशिष्ट वर्णादि से युक्त घी कैसा मधुर होता है, उससे अधिक मधुर-वचन, इस लब्धि के प्रभाव से मिलता है। ऐसा दूध और घी मन की संतुष्टि एवं शरीर की पुष्टि करने वाला होता है, वैसे इस लब्धि से संपन्न आत्मा का वचन, श्रोता के तन-मन को आह्लादित करता है। अमृताश्रवी, इक्षुरसाश्रवी आदि लब्धियाँ भी इसी प्रकार समझना। अथवा-जिस लब्धि के प्रभाव से पात्र में आया हुआ स्वादरहित भी आहार, दूध, घी एवं मधु की तरह स्वादिष्ट एवं पुष्टिकर बन जाता है।
(२०) कोष्ठक-बुद्धि कोठी में डाला हुआ अनाज बहुत समय तक सुरक्षित रह सकता है, वैसे जिस लब्धि के प्रभाव से सुना हुआ या पढ़ा हुआ शास्त्रार्थ चिरकाल तक यथावत् याद रहता है।
(२१) पदानुसारी लब्धि—जिस लब्धि के प्रभाव से एक पद सुनकर अनेक पदों का ज्ञान हो जाता है।
(२२) बीज-बुद्धि—जिस लब्धि की शक्ति से बीज-भूत एक अर्थ को सुन कर अश्रुत अनेक , अर्थों का ज्ञान होता है। यह लब्धि गणधर-भगवन्तों को होती है। वे तीर्थंकर परमात्मा के मुख से
अर्थ-प्रधान उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप त्रिपदी को सुनकर अनन्त अर्थों से भरी हुई द्वादशांगी की रचना करते हैं।
(२३) तेजोलेश्या—जिस लब्धि से, आत्मा क्रुद्ध होकर अपने तैजस्-पुद्गल को ज्वाला के रूप में बाहर निकालकर अपनी अप्रिय वस्तु, व्यक्ति आदि को भस्म कर सकता है।
(२४) शीतलेश्या—जिस लब्धि से आत्मा अपने शीत तेज-पुद्गलों को तेजोलेश्या से जलते हुए आत्मा पर डालकर, उसे भस्म होने से बचा सकता है। भगवान महावीर के समय में कूर्म गाँव में अति करुणाशील वैशंपायन नाम का तपस्वी अज्ञानतप करता था। स्नानादि के अभाव में उसके सिर में अगणित जंएँ पड गई थीं। उसे देखकर गोशालक ने 'यका शय्यातर' (जंओं का जाला) कहकर उसका
हास किया था। इससे अत्यन्त क्रुद्ध होकर उस तपस्वी ने गोशालक को भस्म करने हेतु तेजोलेश्या का प्रयोग किया। तेजोलेश्या से गोशालक की रक्षा करने के लिये अत्यंत करुणाशील भगवान महावीर ने तत्काल शीतलेश्या का प्रयोग किया।
तेजोलेश्या की सिद्धि छट्ठ के पारणे छट्ठ करने वाले, पारणे में एक मुट्ठी उड़द के बाकुले एवं चुल्लू भर जल लेने वाले साधक को छमास में तेजोलेश्या सिद्ध होती है।
(२५) आहारक लब्धि—प्राणीदया, तीर्थंकर की ऋद्धि एवं अपने संशयों का निराकरण करने के लिये जिस लब्धि से चौदह पूर्वधर साधक अन्य क्षेत्र में जाने योग्य एक हाथ प्रमाण का आहारक शरीर बनाते हैं।
(२६) वैक्रिय लब्धि-जिस लब्धि से मनचाहे रूप बनाने की शक्ति प्राप्त होती है। यह लब्धि मनुष्य और तिर्यंच को आराधनाजन्य एवं देव-नरक को सहज होती है।
(२७) अक्षीणमहानसी लब्धि-जिस लब्धि-शक्ति से छोटे से पात्र में लायी हुई भिक्षा लाखों लोकों को तृप्त कर देती है, फिर भी पात्र भरा रहता है। पात्र तभी खाली होता है, जब लब्धिधारी स्वयं उस भिक्षा का उपयोग करता है।
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