Book Title: Pravachana Saroddhar Part 2
Author(s): Hemprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

View full book text
Previous | Next

Page 427
________________ ४१० जिस लब्धि के प्रभाव से जीव अपने शरीर के संपूर्ण रोमों व छिद्रों द्वारा सुन सकता है अथवा सभी विषयों को सभी इन्द्रियों से ग्रहण कर सकता है अथवा एक साथ सुनाई देने वाले वादित्र आदि के शब्दों को अलग-अलग करके जान सकता है वह लब्धि संभिन्नश्रोतस् कहलाती है ।। १४९८ ।। ऋजु अर्थात् सामान्य, उसको ग्रहण करने वाला मनपर्यवज्ञान 'ऋजुमति' है। जैसे कोई व्यक्ति घड़े का विचार कर रहा है तो 'ऋजुमति मनपर्यवी' इतना जान सकता है कि 'अमुक व्यक्ति घड़े का विचार कर रहा है' विशेष कुछ भी नहीं जान सकता। विपुलमति वस्तुगत विशेष धर्मों को जानता है । अर्थात् घड़े को जानने के साथ-साथ उसकी पर्यायों को भी जानता है ।। १४९९ - १५०० ।। आशी अर्थात् दाढ़ा, उसमें रहने वाला जहर 'आशीविष' कहलाता है। वह जहर दो प्रकार का है - कर्म और जाति के भेद से। इन दो भेदों के भी अनेक भेद और चार भेद हैं ।। १५०१ ।। द्वार २७० दूध, मधु और घृत तुल्य उपमा वाले मधुर वचन जिस लब्धि के प्रभाव से निकलते हों, वह क्षीरमधुसर्पिराश्रवलब्धि है। कोठी में पड़े हुए धान्य की तरह जिसके सूत्र और अर्थ हों वह कोष्ठकबुद्धिलब्धिधर है ।। १५०२ ।। जिसके प्रभाव से एक सूत्र पढ़कर स्वयं की बुद्धि द्वारा अनेक सूत्रों का ज्ञान कर सकता है वह पदानुसारी लब्धि है । एक पद के अर्थ का बोध होने पर अनेक पद के अर्थ का बोध कराने वाली लब्धि बीजबुद्धि है ।। १५०३ ।। जिसके द्वारा लाई गई भिक्षा, जब तक वह स्वयं भोजन न करे तब तक लाखों व्यक्ति भोजन कर लें फिर भी शेष नहीं होती, उसके खाने पर ही भिक्षा पूर्ण होती है, वह अक्षीणमहानसीलब्धिधर है ।। १५०४ ।। भव्य पुरुष को पूर्वोक्त सभी लब्धियाँ होती हैं । भव्य स्त्रियों को जितनी लब्धियाँ होती हैं वे आगे कहेंगे ।। १५०५ ॥ -विवेचन लब्धि = शुभ-अध्यवसाय या संयम की आराधना द्वारा जन्य, कर्म के क्षय या क्षयोपशम से उत्पन्न विशिष्ट आत्मिक शक्ति 'लब्धि' कहलाती है। मुख्य रूप से लब्धियाँ अट्ठावीस हैं । इनके अतिरिक्त जीवों के शुभ-शुभतर व शुभतम परिणाम विशेष के द्वारा अथवा असाधारण तप के प्रभाव से अनेकविध लब्धियाँ ऋद्धि विशेष जीवों को प्राप्त होती हैं । (१) आमषैषधि लब्धि - आमर्ष अर्थात् स्पर्श । जिस लब्धि के प्रभाव से लब्धि - विशिष्ट आत्मा के कर आदि का स्पर्श होने पर स्व और पर के रोग शान्त हो जाते हैं वह आमर्षौषधि लब्धि कहलाती है T (२) विप्रुडौषधि लब्धि - यहाँ प्रसिद्ध पाठ है 'मुत्तपुरीसाण विप्पुसो वाऽवि । 'विप्रुड्' का अर्थ है अवयव अर्थात् मूत्र व पुरीष (विष्ठा) के अवयव विप्रुड् कहलाते हैं । 'विप्पुसो वाऽवि' ऐसा पाठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522