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प्रवचन-सारोद्धार
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___अन्तरकरण में वर्तमान जीव, उपशम सम्यक्त्व के बल से द्वितीय स्थितिगत मिथ्यात्व के दलिकों का शुद्धिकरण प्रारम्भ करता है। शुद्धिकरण के इस अभियान में कुछ दलिक सर्वथा शुद्ध हो जाते हैं, कुछ अर्धशुद्ध होते हैं, तो कुछ अशुद्ध ही रह जाते हैं। इस प्रकार अन्तरकरण का एक समय और उत्कृष्ट से छ: आवलिका शेष रहने पर किसी जीव को तथाविध निमित्तवश अनन्तानुबंधी कषाय का उदय हो जाता है और इसमें मोक्ष का बीज-भूत उपशम-सम्यक्त्वा नष्ट हो जाता है। परन्तु जैसे खीर का भोजन करने के पश्चात् वमन हो जाने पर भी खीर का कुछ स्वाद अवश्य रहता है, वैसे अनन्तानुबंधी कषाय के उदय से उपशम सम्यक्त्व नष्ट हो जाने पर भी उसका कुछ स्वाद आत्मा में अवश्य रहता है। यही सास्वादन है अथवा सम्यक्त्व का नाशक अनन्तानुबंधी काय के उदय सहित जो गुणस्थान है वह सासादन गुणस्थान कहलाता है।
कर्मग्रन्थ के मतानुसार—यह गुणस्थान उपशम श्रेणी से गिरते हुए आत्मा को ही होता है।
सिद्धान्त के मतानुसार—श्रेणि से गिरने वाला जीव 'प्रमत्तसयत' या 'अप्रमत्तसंयत' गुणस्थान में आकर ठहरता है। आयु की पूर्णता से गिरने वाला देव में उत्पन्न हो चौथे अविरत सम्यक् दृष्टि गुणस्थान
जाता है। यह गुणस्थान उपशम सम्यक्त्व से गिरने वाले आत्मा को ही मिलता है तथा इस गुणस्थान से निकलकर सभी जीव निश्चित रूप से प्रथम-गुणस्थान में जाते हैं। al ३. मिश्र गुणस्थान—जिस आत्मा में जिन प्रणीत तत्त्वों के प्रति श्रद्धा या अश्रद्धा दोनों ही नहीं
वह 'मिश्रदृष्टि' कहलाता है। ऐसे आत्मा का गुणस्थान मिश्रदृष्टि गुणस्थान है। अन्तरकरण काल में मान जीव ने विशुद्ध अध्यवसाय के द्वारा द्वितीय स्थितिगत दलिक के जो तीन पुंज किये थे यथा, शुद्ध, अर्धशुद्ध और अशुद्ध ....इनकी स्थापना इस प्रकार है-02. उसमें से मिश्र-पुंज का उदय होने पर यह गुणस्थान प्राप्त होता है। अत: इस गुणस्थानवी जीव को जिनेश्वर भगवन्त द्वारा प्रणीत तत्त्वों पर अर्ध विशुद्ध श्रद्धा होती है। इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त का है। इस गुणस्थान का समय पूर्ण हो जाने पर जीव प्रथम या चतुर्थ गुणस्थान में जाता है।
४. अविरत सम्यग् दृष्टि-विरत का अर्थ है-सावद्य योगों का त्यागी। जिसने सावधयोगों का त्याग नहीं किया पर जो सम्यक्त्वी है ऐसे आत्मा का गुणस्थान ‘अविरत सम्यक् दृष्टि' गुणस्थान कहलाता है। इस गुणस्थानवी जीव को औपशमिक, क्षायिक एवं क्षायोपशमिक तीनों में से कोई एक सम्यक्त्व होता है, किन्तु अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से जीव मोक्ष-महल में जाने के लिए सोपान तुल्य विरति (व्रत-प्रत्याख्यान) धर्म को जानते हुए भी ग्रहण नहीं कर सकता।
५. देशविरति—अल्पविरति वाले जीवों का गुणस्थान, देशविरति गुणस्थान कहलाता है। इस गुणस्थानवी जीव में चौथे गुणस्थान की तरह तीनों सम्यक्त्व होते हैं तथा एक व्रत दो व्रत यावत् बारहव्रत विषयक अनुमति को छोड़कर पाप व्यापारों की स्थूल रूप से विरति होती है । परन्तु प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होने से इस गणस्थानवी जीव को सर्वविरति नहीं होती, क्योंकि प्रत्याख्यानावरण कषाय सर्वविरति का बाधक है। यह गुणस्थान सम्यक् आचरण का प्रथम सोपान हैं। इस गुणस्थानवर्ती आत्मा वासनामय जीवन से आंशिक निवृत्ति लेता है तथा यथाशक्ति, अहिंसा, सत्य, अचौर्य आदि अणुव्रतों को ग्रहण करता है।
६. प्रमत्तसंयत-प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षय उपशम या क्षयोपशम से जिस गुणस्थान में आत्मा, सावद्ययोगों का सर्वथा त्यागी होने के साथ संज्वलन कषायवश संयम पालन में प्रमादी भी
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