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प्रवचन-सारोद्धार
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'अंजनगिरि' कृष्णरत्नमय हैं अत: उनसे श्याम किरणें निकलती हैं। वे पर्वत ऐसे लगते हैं मानो चारों ओर से वे नवपल्लवित तमालवृक्षों के वन से घिरे हुए हों। अनेकविध सुन्दर उद्यान से युक्त व वर्षाकालीन मेघ घटाओं से सुशोभित हों। - वस्तुत: पर्वत विविध उद्यानों से सुशोभित व जल से परिपूर्ण बादलों से घिरे हुए ही रहते हैं।
प्रत्येक सिद्धायतन के चारों दिशा में ४ द्वार व ऊपर पताका है। प्रत्येक द्वार मणिरत्नों के तोरणों से तथा प्रेक्षामण्डपों से सुशोभित हैं। इन सिद्धायतनों में ५०० धनुष ऊँची १०८ शाश्वत जिन प्रतिमायें हैं। सिद्धायतनों के मध्य में रत्नमय पीठिका है तथा पीठिका पर इन्द्रध्वजा विराजमान है। सिद्धायतनों के आगे १०० योजन लंबी, ५० योजन चौड़ी तथा १० योजन. गहरी एक-एक वापी है। इन वापिकाओं के पूर्व, दक्षिण, पश्चिम व उत्तर में क्रमश: अशोकवन, सप्तच्छदवन, चंपकवन व आम्रवन हैं।।
प्रत्येक अंजनगिरि से एक-एक लाख योजन दूर चारों दिशा में ४-४ वापिकायें हैं। प्रत्येक वापी १ लाख योजन लंबी-चौड़ी व १० योजन गहरी है। वापिकाओं के मणिरत्नमय खंभे उत्तुंग तोरणों से सुशोभित हैं। उनके पूर्व, दक्षिण, पश्चिम व उत्तर में क्रमश: अशोकादि वन हैं। इन वापिकाओं के मध्यभाग में स्फटिक रत्नमय, दूध, दही की तरह उज्ज्वल वर्ण वाले दधिमुख नामक पर्वत हैं। ये पर्वत ऐसे लगते हैं मानों जल तरंगों के परस्पर टकराने से उत्पन्न होने वाले झागों का समूह हों। ये पर्वत ६४ हजार योजन ऊँचे, १ हजार योजन भूमिगत तथा नीचे से ऊपर तक १० हजार योजन विस्तृत पलंग की तरह दिखाई देते हैं। इन पर्वतों पर अंजनगिरि जैसे ही सिद्धायतन हैं।
इन वापिकाओं के अन्तराल में अर्थात् अंजनगिरि की विदिशा में रतिकर नामक दो-दो पर्वत हैं। ये पर्वत पद्मराग मणि की तरह रक्ताभ हैं। मानों ये पर्वत सिद्धायतनों में विराजमान प्रतिमाओं के कुंकुमवर्णीय प्रक्षाल के जल प्रवाह से रक्ताभ प्रतीत हो रहे हों। ये पर्वत अत्यन्त कोमल स्पर्श वाले व देवताओं के आवास स्थान है। इन पर्वतों की ऊँचाई व विस्तार १०००० योजन तथा अवगाह २५० योजन है। चारों ओर से समानाकार होने से झालर की तरह प्रतीत होते हैं। उन पर भी पूर्व प्रमाण वाले जिनायतन हैं। चारों दिशा की वापिकाओं के नाम१. देवरमण गिरि की पूर्व, दक्षिण, पश्चिम व उत्तर दिशा में क्रमश: नन्दोत्तरा, नन्दा,
आनन्दा व नन्दिवर्धना नाम की वापिकायें हैं। नित्योद्योत की पूर्व, दक्षिण, पश्चिम व उत्तर दिशा में क्रमश: भद्रा, विशाला, कुमुदा व पुण्डरिकिणी वापिकायें हैं। स्वयंप्रभ की पूर्व, दक्षिण, पश्चिम व उत्तर दिशा में क्रमश: नन्दिषेणा, अमोघा, गोस्तूभा · व सुदर्शना वापिकायें हैं। रमणीय की पूर्व, दक्षिण, पश्चिम व उत्तर दिशा में क्रमश: विजया, वैजयन्ती, जयन्ती व अपराजिता वापिकायें हैं।
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