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प्रवचन-सारोद्धार
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प्रमाणांगुल उत्सेधांगुल से एक हजार गुणा अधिक बड़ा होता है। दो उत्सेधांगुल से वीरप्रभु का एक 'आत्मांगुल' बनता है ॥१३९६ ॥
वास्तु का माप आत्मांगुल से, शरीर का माप उत्सेधांगुल से तथा पर्वत, पृथ्वी, विमान आदि का माप प्रमाणांगुल से किया जाता है ।१३९७ ।।
-विवेचनअंगुल—'अंगुल' शब्द गत्यर्थक ‘अगि' धातु से बना है। गत्यर्थक धातुयें ज्ञानार्थक भी होती हैं अत: यहाँ ‘अगि' धातु का अर्थ ज्ञान ही है। अंगुल का अर्थ है-पदार्थों के प्रमाण का ज्ञान कराने वाला माप । इसके ३ भेद हैं-(i) उत्सेधांगुल (ii) आत्मांगुल व (iii) प्रमाणांगुल। (i) उत्सेधांगुल - उत्सेधांगुल को समझने के लिये सर्वप्रथम परमाणु आदि को
समझना आवश्यक है। परमाणु-यहाँ परमाणु का अर्थ निरंश द्रव्य नहीं है पर ऐसा सूक्ष्मपरिणामी पुद्गल द्रव्य है जो • सुतीक्ष्ण शस्त्र से भी विभक्त नहीं किया जा सकता, जिसके खंड नहीं हो सकते तथा जिसे छेदा नहीं जा सकता । जो अनन्त अणुओं से निष्पन्न होता है पर अत्यन्त सूक्ष्मपरिणामी होने से चक्षु का विषय नहीं बन सकता। यह व्यवहारनय सम्मत परमाणु है क्योंकि इसमें भी निरंश द्रव्यरूप परमाणु के लक्षण घटते हैं। सूक्ष्म परमाणु अप्रदेशी होता है। विज्ञानसम्मत परमाणु जैनदृष्टि से व्यवहार परमाणु है। क्योंकि इसका विखण्डन संभव है। यह अनन्त प्रदेश वाला है। आगमों में इसे भी अछेद्य और अभेद कहा गया है।
परमाणु का स्वरूप बताने के पश्चात् उत्सेधांगुल आदि परिमाणों की निष्पत्ति के कारणरूप अन्य परिमाणों का स्वरूप भी यहाँ बताया जाता है। यद्यपि यहाँ मूल में 'उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका' आदि तीन पद अनुक्त हैं तथापि अनुयोगद्वार आदि में कहे गये हैं और युक्ति संगत भी हैं अत: टीका में बताये जाते
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अनंत परमाणु ८ उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका ८ श्लक्ष्णश्लक्षिणका ८ उध्वरेणु ८ त्रसरेणु ८ रथरेणु ८ वालाग्र ८ वालाग्र ८ वालाग्र ८ वालाग्र ८ वालाग्र
= १ उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका। = १ श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका। . = १ उर्ध्व रेणु। = १ त्रसरेणु। = १ रथरेणु = १ वालाग्र (देवकुरु-उत्तरकुरु के युगलिकों का) = १ वालाग्र (हरिवर्ष-रम्यकवर्ष के युगलिकों का) = १ वालाग्र (हैमवत-हैरण्यवत के युगलिकों का) = १ वालाग्र (पूर्व-पश्चिम विदेह के मनुष्यों का) = १ वालाग्र (भरत-ऐरवत के मनुष्यों का) = १ लीख
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