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द्वार २३२
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३. इन्द्रिय पर्याप्ति = अन्तर्मुहूर्त में (शरीर पर्याप्ति के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में पूर्ण होती है) ४. श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति = अन्तर्मुहूर्त में (इन्द्रिय पर्याप्ति के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में पूर्ण होती है) ५. भाषा पर्याप्ति = अन्तर्मुहूर्त में (श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में पूर्ण
___ होती है) ६. मन: पर्याप्ति = अन्तर्मुहूर्त (भाषा पर्याप्ति के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में पूर्ण होती है)
छ: पर्याप्ति को मिलाकर भी निष्पत्ति काल अन्तर्मुहूर्त ही है। इससे स्पष्ट है कि पूर्व पर्याप्ति के अन्तर्मुहूर्त की अपेक्षा उत्तर पर्याप्ति का अन्तर्मुहूर्त प्रमाण में बड़ा है। अन्तर्मुहूर्त के अनेक भेद हैं।
प्रश्न आहार पर्याप्ति प्रथम समय में ही पूर्ण हो जाती है यह आप किस आधार से कह रहे हो?
उत्तर-प्रज्ञापना सूत्र के द्वितीय उद्देशक के आहार पद में आर्य श्याम ने कहा है कि 'आहार त्तीए अपज्जत्तए णं भंते किं आहारए अणाहारए? गोयमा ! नो आहारए अणाहारए' अर्थात आहार पर्याप्ति से अपर्याप्त जीव आहारी होता है या अनाहारी? भगवान्–गौतम ! वह जीव आहारी नहीं किन्तु अनाहारी होता है।
आहार पर्याप्ति से अपर्याप्त जीव विग्रह-गति में ही होता है। उत्पत्ति स्थान में आने के बाद जीव प्रथम समय में ही आहार ग्रहण कर लेता है। यदि उपपात क्षेत्र में आने के बाद भी जीव प्रथम समय में आहार ग्रहण न करे, तो पूर्वोक्त सूत्र में ऐसा कहना चाहिये कि 'सिय आहारए, सिय अणाहारए' (आहारी भी हो सकता है, अनाहारी भी हो सकता है) जैसे कि शरीरादि पर्याप्ति के विषय में इसी सूत्र में “सिय आहारए, सिय अणाहारए" कहा है। अर्थात् शरीर पर्याप्ति से अपर्याप्त जीव विग्रह-गति में अनाहारक होता है तथा उत्पत्ति से लेकर शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने तक आहारक होता है। इसलिये यहाँ 'स्यात् आहारक, स्यात् अनाहारक' कहा। इन्द्रिय आदि पर्याप्तियों के विषय में भी यही समझना चाहिये। पर्याप्तियों का अन्तर्मुहूर्त प्रमाण निष्पत्ति-काल औदारिक शरीर की अपेक्षा से कहा है। आहारक और वैक्रिय शरीर की अपेक्षा से निष्पत्ति-काल
१ .आहार पर्याप्ति = १ समय २. शरीर पर्याप्ति = अन्तर्मुहूर्त ३. इन्द्रिय पर्याप्ति
१ समय ४. भाषा पर्याप्ति
१ समय ५. श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति = १ समय ६. मन: पर्याप्ति
= १ समय वैक्रिय और आहारक शरीरी जीव एक ही साथ अपने योग्य सभी पर्याप्तियों को प्रारम्भ करते हैं, किन्तु उनकी समाप्ति क्रमश: एक-एक समय के अन्तर से होती है। देवों के भाषा और मन पर्याप्ति एक ही साथ पूर्ण होती है। भगवती सूत्र में इन दोनों पर्याप्तियों को अलग न मानकर एक ही माना है। इस प्रकार देवों के छ: पर्याप्ति के स्थान पर पाँच ही पर्याप्तियाँ बताई हैं। “पंचविहाए पज्जत्तीए" इसका अर्थ बताते हुए टीकाकार ने कहा है कि आहार, शरीर आदि पर्याप्तियाँ अन्यत्र छ: प्रकार की बताई हैं, किन्तु प्रकृत सूत्र में बहुश्रुतों ने किसी कारण से भाषा और मन पर्याप्ति को एक मानकर पाँच पर्याप्तियाँ ही बताई हैं ॥ १३१७-१८ ॥
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