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प्रवचन-सारोद्धार
३५१
मुत्तस्स सोणियस्स य पत्तेयं आढयं वसाए उ। अद्धाढयं भणंति य पत्थं मत्थुलुयवत्थुस्स ॥१३८१ ॥ असुइमल पत्थछक्कं कुलओ कुलओ य पित्तसिंभाणं । सुक्कस्स अद्धकुलओ दुटुं हीणाहियं होज्जा ॥१३८२ ॥ एक्कारस इत्थीए नव सोयाइं तु हुति पुरिसंस्स। इय किं सुइत्तणं अट्ठिमंसमलरुहिरसंघाए ॥१३८३ ॥
-गाथार्थशरीर में शुक्र आदि का परिमाण-माता के गर्भ में शरीर के बीजरूप शुक्र और रक्त का स्थान है। इन दोनों का योग 'ओज' कहलाता है। यह 'ओज' शरीर का मूल कारण है। शरीर का स्वरूप इस प्रकार है ।।१३६७॥
शरीर में अट्ठारह पाँसुलिओं की सन्धियाँ हैं। इनमें से बारह पाँसुलियाँ करण्डक रूप है तथा छ: पाँसुलियाँ कटाह रूप है। जीभ सात अंगुल लंबी और वजन में चार पल परिमाण है। आँख का वजन दो पल है। शिर हड्डियों के चार टुकड़ों से निर्मित है ॥१३६८-६९ ।।
हृदय का वजन साढ़े तीन पल है। मुँह में हड्डियों के खण्ड रूप बत्तीस दाँत हैं। छाती के भीतर स्थित 'कलेजे' का परिमाण आगम में पच्चीस पल का बताया है ॥१३७० ।।
शरीर में पाँच-पाँच हाथ लंबी दो बड़ी आंतें हैं। पूरे शरीर में एक सौ साठ सन्धियाँ तथा एक सौ सात मर्म स्थान हैं॥१३७१ ।।
नाभि से उत्पन्न होने वाली एक सौ साठ शिरायें मस्तक से जुड़ती हैं। जिन्हें रसहरणी कहते हैं। इन नसों पर अनुग्रह या उपघात होने पर कान, आँख, नाक और जीभ पर अच्छी-बुरी असर होती है। नाभि से निकलकर एक सौ साठ शिरायें नीचे पाँवों के तलियों से जुड़ती हैं। इनके अनुग्रह से जंघाबल मजबूत होता है और उपघात होने से शिरो वेदना, अंधत्व आदि पीड़ायें होती हैं। नाभि से निकलकर एक सौ साठ नसें गुदा से जुड़ती हैं जो वायु के संचार में तथा मूत्र-पुरीष के निर्गमन में उपयोगी बनती हैं। इनका उपघात होने से बवासीर, पाँडुरोग, मूत्र-पुरीष सम्बन्धी बीमारियाँ हो जाती हैं । नाभि से निकलकर एक सौ साठ शिरायें तिरछी जाती हैं। ये शिरायें भुजाओं में ताकत उत्पन्न करती हैं। इनके उपधात से काँख, पेट आदि की पीड़ा होती है। पच्चीस शिरायें कफधारिणी, पच्चीस पित्तधारिणी तथा दस शिरायें शुक्रधारिणी हैं। इस प्रकार नाभि से उत्पन्न होने वाली कुल सात सौ नसें पुरुष के शरीर में होती हैं ॥१३७२-७८ ॥
स्त्रियों के तीस न्यून सात सौ नसें होती हैं तथा नपुंसक के बीस न्यून सात सौ नसें होती हैं। इसके अतिरिक्त नौ सौ स्नायु तथा नौ धमनियाँ शरीर में होती हैं ॥१३७९ ।।
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