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प्रवचन-सारोद्धार
३१९
२३३ द्वार:
अनाहारक ४
विग्गहगइमावन्ना केवलिणो समोहया अजोगी य। सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारगा जीवा ॥१३१९ ॥
-गाथार्थचार अनाहारी–१. विग्रहगतिवर्ती २. केवली समुद्घात करने वाले ३. अयोगी केवली तथा ४. सिद्ध परमात्मा अनाहारी हैं। शेष सभी जीव आहारी हैं ॥१३१९ ॥
-विवेचन१. विग्रहगति में स्थित जीव। २. केवली समुद्घात के ३रे-४थे और ५वें समय में स्थित जीव । ३. अयोगी (शैलेशीकरण करते समय) आत्मा। ४. सिद्धात्मा। ये चार जीव अनाहारक होते हैं। परभव जाते समय जीवों की गति दो प्रकार की होती है
(i) ऋजुगति—यह गति एक समय की है। जीव के मरण-स्थान से उसका उत्पत्ति-स्थान समश्रेणी (सीधी लाइन) में स्थित है तो वह प्रथम समय में ही अपने उत्पत्ति-स्थान में सीधा पहुँच जाता है। ऋजुगति से जाने वाला जीव निश्चितरूप से आहारक होता है, क्योंकि इसमें पुराने एवं नये शरीर के बीच समयान्तर नहीं रहता। एक समय में ही पूर्व शरीर का त्याग एवं उत्तर शरीर के योग्य पुद्गलों का ग्रहण हो जाता है। यह ओजाहार है। इस प्रकार ऋजुगति में नियम से आहार होता है।
(ii) विग्रह गति—जीव के मरण-स्थान से उसका उत्पत्ति-स्थान जब वक्रश्रेणी में होता है तो जीव की विग्रह गति होती है अर्थात् जीव बीच में मोड़ लेता हुआ अपने उत्पत्ति स्थान पर पहुँचता है। जिस गति में समय का व्यवधान होता है वह विग्रह गति है। अधिक से अधिक जीव तीन मोड़ लेता है। इसमें क्रमश: दो समय, तीन समय, और चार समय लगते हैं। यदा कदा चार वक्र भी होते हैं।
(अ) एक वक्रा—यह दो समय की होती है। दो समय की वक्रगति में जीव निश्चित रूप से आहारक होता है। प्रथम समय में जीव पूर्व शरीर को छोड़ते हुए उस शरीर सम्बन्धी कुछ पुद्गल लोमाहार के रूप में अवश्य ग्रहण करता है अत: वहाँ आहारक होता है। वैसे ही दूसरे समय में उत्पत्तिस्थान पर पहुँचकर तद्भव सम्बन्धी शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहण करने से आहारक होता है। आहार का अर्थ है औदारिक, वैक्रिय व आहारक शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहण करना।
(ब) दो वक्रा—इसमें तीन समय लगते हैं। यहाँ प्रथम और अंतिम समय में जीव पूर्ववत् आहारक और मध्यवर्ती समय में अनाहारक होता है ।
(स) सनाड़ी के बाहर नीचे से ऊपर व ऊपर से नीचे उत्पन्न होने वाला जीव यदि विदिशा से दिशा में या दिशा से विदिशा में उत्पन्न हो तो वहाँ पहुँचने में जीव को तीन मोड़ लेने पड़ते हैं। इसमें
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