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प्रवचन-सारोद्धार
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नाश करने वाला। यहाँ 'य' का लोप हो जाता है। अर्थात् जहाँ अनन्तानुबंधी के उदय से मोक्षसुख को देने वाले कल्याणरूपी वृक्ष के बीजभूत औपशमिक सम्यक्त्व का जघन्य से एक समय में व उत्कृष्ट से छ: आवलिका में नाश होता है वह ‘सासादन सम्यग्दृष्टि' गुणस्थान कहलाता है। अथवा यह ‘सासातन सम्यग्दृष्टि' भी कहलाता है। स = सहित, आसातना = सम्यक्त्व की नाशक अनन्तानुबंधी कषाय । अर्थात् जहाँ सम्यक्त्व की नाशक अनन्तानुबंधी कषाय का उदय होता है वह गुणस्थान । अथवा इसे 'सास्वादन गुणस्थान' भी कहते हैं—स + सहित । आस्वादन = स्वाद अर्थात् जिस गुणस्थान में सम्यक्त्व तो नहीं होता, किन्तु सम्यक्त्व का स्वाद अवश्य रहता है। वह ‘सास्वादन गुणस्थान' है । जैसे खीर खाने के बाद वमन हो जाने पर भी खाने वाले को खीर का कुछ स्वाद अवश्य रहता है, वैसे ही अनन्तानुबंधी के उदय से मिथ्यात्वाभिमुख बने आत्मा को सम्यक्त्व चले जाने पर भी उसका तनिक आस्वाद अवश्य रहता है। इस प्रकार सम्यक्त्व के आस्वादन सहित आत्मा में ज्ञानादिगुणों की जो स्थिति है, वह सास्वादन गुणस्थान है। इस गुणस्थान की प्राप्ति का आधार उपशम सम्यक्त्व है और उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिये मिथ्यात्व-गुणस्थान में यथाप्रवृत्ति आदि करण करने पड़ते हैं। उनका सविस्तार स्वरूप इस प्रकार है
आत्मा अनादिकाल से संसार सागर में मिथ्यात्वादि के कारण अनेकविध शारीरिक व मानसिक द:खों को भोगता हुआ परिभ्रमण करता रहता है । जैसे-पर्वत से टूट कर पत्थर नदी के प्रवाह में प्रवाहित होता हुआ इधर-उधर टकरा-टकरा कर गोल बन जाता है, वैसे तथाविध भव्यत्व के परिपाकवश जीव कदाचित् दुःख-गर्भित वैराग्य को प्राप्त करता है। वैराग्य के अध्यवसायों को प्राप्त करना यथाप्रवृत्तिकरण है। इससे आयुष्य को छोड़कर शेष सातों ही कर्मों की स्थिति टूट कर पल्योपम के असंख्यातवें भाग न्यून एक कोड़ाकोड़ी सागरोपम की हो जाती है । यह करण अभव्य आत्मा भी कई बार करता है तथा आत्मा में पड़ी हुई राग-द्वेष की अति दुर्भेद्य ग्रन्थि तक पहुँच जाता है, किन्तु उसे भेदने का साहस वह नहीं कर पाता । वहीं से पुन: लौट आता है, पुन: कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को बाँधता है। इनमें से कोई सत्वशाली, आसन्नमोक्षगामी आत्मा अपूर्व वीर्योल्लासपूर्वक तीक्ष्ण कुठार की धारातुल्य अपूर्वकरण (अपूर्व अध्यवसाय) द्वारा राग-द्वेष की उस दुर्भेद्य ग्रन्थि को तोड़ डालता है। तत्पश्चात् उदय प्राप्त मोहनीय कर्म को भोगकर अनिवृत्तिकरण में प्रविष्ट होता है । अनिवृत्तिकरण के बीच आत्मा अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अन्तरकरण करता है । अन्तरकरण की स्थिति में मिथ्यात्व का एक भी दलिक उदय में नहीं आता है। करणों का क्रम इस प्रकार है
ग्रन्थि के समीप पहुँचने तक यथाप्रवृत्तिकरण होता है। ग्रंथि को तोड़ना अपूर्वकरण है और सम्यक्त्व प्राप्ति की तैयारी अनिवृत्तिकरण है। अनिवृत्तिकरणवर्ती आत्मा अपूर्व-अध्यवसाय के द्वारा कर्मों का स्थितिघात, रसघात आदि करते हुए क्षय करता जाता है। यह क्रम अनिवृत्तिकरण का संख्यातवां एक भाग शेष रहने तक चलता है। असत् कल्पना से उसे इस प्रकार समझा जा. सकता है।
यद्यपि अन्तर्मुहूर्त में असंख्याता समय होते हैं, तथापि समझने के लिये उसे १०० समय प्रमाण मान लिया जाये तो १ से २५ समय तक का काल यथाप्रवृत्तिकरण का, २६ से ५० समय तक का काल अपूर्वकरण का तथा ५१ से ७५ समय जितना काल अनिवृत्तिकरण का होगा। अनिवृत्तिकरण का
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