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सूत्र सूचक होते हैं अथवा पद का एकदेश संपूर्ण पद का बोधक होता है। इसके अनुसार गाथावर्ती 'गुणा' शब्द 'गुणस्थान' का निर्देशक है ।
गुणस्थान—आत्मा के ज्ञानादि - गुणों की शुद्धि - अशुद्धि की तरतमता के स्थान गुणस्थान हैं। गुणों के तारतम्य की अपेक्षा से संसार का प्रत्येक जीव एक दूसरे से भिन्न है अतः वास्तविक रूप अनन्त गुणस्थान हैं, किन्तु इतने अधिक भेद स्थूल दृष्टि से ज्ञात नहीं हो सकते। अतः गुणों के मुख्य भेद को ध्यान में रखते हुए ज्ञानी पुरुषों ने गुणस्थान के चौदह भेद किये हैं ।
द्वार २२४
१. मिथ्यात्वगुणस्थान —- मिथ्या = विपरीत और दृष्टि जिन प्रणीत तत्त्वों पर अश्रद्धा । जैसे धतूरा चबाने वाले व्यक्ति को सफेद वस्तु भी पीली दिखायी देती है, वैसे ही जिसे परमात्मा द्वारा प्ररूपित तत्त्वों पर अश्रद्धा या विपरीत श्रद्धा होती है, वह मिथ्या दृष्टि है । मिथ्या - दृष्टि में रहा हुआ ज्ञानादि गुणों की शुद्धि - अशुद्धि का तारतम्य मिथ्या-दृष्टि गुणस्थान है ।
प्रश्न – मिथ्यादृष्टि में ज्ञानादि - गुणों का संभव कैसे हो सकता है ?
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उत्तर - यद्यपि मिथ्यादृष्टि में तत्त्व श्रद्धा रूप गुण सर्वथा नहीं होता, तथापि व्यावहारिक ज्ञान उसे भी सम्यक्त्वी की तरह ही होता है । जैसे, वह मनुष्य को मनुष्य, पशु को पशु ही कहता है विपरीत नहीं कहता है। यहाँ तक कि निगोद के जीवों में स्पर्श-जन्य अव्यक्त ही सही किन्तु सत्य ज्ञान होता है । घनघोर बादलों से सम्पूर्ण आकाश ढक जाने पर भी सूर्य का प्रकाश नष्ट नहीं होता अन्यथा रात दिन का कोई भेद ही नहीं रहेगा। वैसे मिथ्यादृष्टि में प्रबल मिथ्यात्व का उदय होने पर भी सत्य - ज्ञान के कुछ अंश उसमें भी उद्घाटित रहते हैं । अत: मिथ्यादृष्टि में भी गुणस्थान होता है ।
प्रश्न- यदि व्यावहारिक एवं स्पर्शजन्य अव्यक्त ज्ञान की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि में गुणस्थान हो सकता है, तो ज्ञानरूप गुण की अपेक्षा से उसमें सम्यक्त्व क्यों नहीं हो सकता ।
उत्तर- जिन प्रणीत सर्व शास्त्रों को मानने पर भी यदि कोई एक अक्षर या पद को नहीं मानता, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है तो जिस व्यक्ति में मात्र व्यावहारिक ज्ञान है, किन्तु तत्त्व के प्रति यत्किंचित् भी श्रद्धा नहीं है, उसमें सम्यक्त्व कैसे हो सकता है ?
प्रश्न -- जिन प्रणीत कुछ तत्त्वों पर श्रद्धा और कुछ तत्त्वों पर अश्रद्धा रखने वाले आत्मा को सम्यग् मिथ्या दृष्टि (मिश्र - दृष्टि) ही कहना चाहिये, उसे एकांत मिथ्यादृष्टि कैसे कहा ?
उत्तर — जिस आत्मा को जिन प्रणीत सम्पूर्ण तत्त्वों पर पूर्ण श्रद्धा होती है, वह सम्यग्दृष्टि है । तथा जिसे जिन प्रणीत तत्त्वों पर श्रद्धा या अश्रद्धा कुछ भी नहीं होती, वह मिश्रदृष्टि है । शत्तकबृहच्चूर्णि में कहा है कि—जैसे, नालिकेरद्वीपवासी मानवों के सम्मुख ओदन आदि अनेकविध भोजन सामग्री रखने पर भी उसके प्रति उनकी न रुचि होती है न अरुचि, क्योंकि उन्होंने ऐसी भोजन सामग्री न कभी देखी हैन सुनी है। इस प्रकार मिश्रदृष्टि जीव को जीवादिपदार्थ पर श्रद्धा अश्रद्धा कुछ भी नहीं होती । किन्तु जिस आत्मा को एक भी वस्तु या वस्तु की एक भी पर्याय के प्रति अश्रद्धा होती है, वह एकान्तत: मिथ्यादृष्टि है ।
२. सास्वादन गुणस्थान- इसे स + आय + सादन। इसका अर्थ है स =
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'सासादन गुणस्थान' भी कहते हैं । इसका विग्रह है सहित, आय = औपशमिक सम्यक्त्व का लाभ, सादन =
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