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द्वार २२९-२३०
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(ii) यह भंग भव्यात्मा की अपेक्षा से समझना। अनादि मिथ्यात्वी भव्य जीव प्रथम बार सम्यक्त्व प्राप्त करता है, तब अनादि मिथ्यात्व का अन्त होने से मिथ्यात्व गुणस्थान अनादि सान्त कहलाता है।
(iii) यह भंग असंभवित है, कारण सम्यक्त्व से पतित जीव को ही मिथ्यात्व-गुणस्थान सादि होता है और ऐसा जीव पन: निश्चित रूप से सम्यक्त्वी बनता है और मिथ्यात्व का अंत करता है अत: यह भंग घटित नहीं होता।
(iv) यह भंग सम्यक्त्व से पतित जीव की अपेक्षा से समझना । अनादि मिथ्यात्वी जीव सम्यक्त्व प्राप्तकर निमित्तवश पुन: मिथ्यात्व में चला जाता है । यह मिथ्यात्व की सादि हुई तथा वह जीव मिथ्यात्व गुणस्थान में जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त और अरिहंत की आशातना आदि पापों की बहुलता के कारण उत्कृष्टत: अधपुद्गलपरावते काल पर्यन्त रहकर पुन: निश्चित रूप से सम्यक्त्वी बनता है। इस प्रकार पन: मिथ्यात्व का अंत होने से पतित जीवों की अपेक्षा यह भंग सिद्ध होता है ॥१३०७ ॥
२. सासादन गुणस्थान-जघन्य १ समय, उत्कृष्ट ६ आवलिका। तत्पश्चात् आत्मा अवश्य मिथ्यात्वी होता है । आवलिका असंख्यात समय का समूह समझना ।
३. मिश्र गुणस्थान जघन्य, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त । . ४. अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट-साधिक ३३ सागरोपम । कोई मनुष्य सम्यक्त्व सहित विरति का पालन करते हुए अनुत्तरविमान का आयुष्य बाँधकर देवभव में जाता है। वहाँ ३३ सागरोपम का देव-सम्बन्धी आयुष्य भोगकर पुन: मनुष्य भव में आता है। देवभव से लेकर मनुष्य भव में जब तक विरति ग्रहण नहीं करता तब तक उस जीव को 'अविरत सम्यग्दृष्टि' गुणस्थान होता है। इस प्रकार इस गुणस्थान का कालमान साधिक ३३ सागरोपम का घटित होता है।
वें और १३वें देशविरति व सयोगी गुणस्थान-इन दोनों गणस्थानों का कालमान भिन्न-भिन्न जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ न्यून पूर्वक्रोड़ वर्ष है। जीव साधिक नौ महीना गर्भस्थ रहता है और उत्पन्न होने के पश्चात् आठ वर्ष तक विरति योग्य नहीं होता। तत्पश्चात् देशविरति को स्वीकार करता है या सर्वविरति को स्वीकार कर केवलज्ञान प्राप्त करता है। इस अपेक्षा से इन दोनों गुणस्थानों का कालमान कुछ न्यून (देशोन) पूर्वक्रोड़वर्ष का है।
७ से १२ गुणस्थानों का उत्कृष्ट कालमान अन्तर्मुहूर्त का है। ७ से ११ गुणस्थान का जघन्य कालमान एक समय का तथा १२वें का अन्तर्मुहूर्त का है।
पूर्व गुणस्थान का काल पूर्ण होने के बाद आत्मा दूसरे गुणस्थान में चला जाता है या उसी गुणस्थान में काल कर जाता है यदि वे मरणधर्मा हैं तो।
१४. अयोगी केवली गुणस्थान का कालमान ङ् ञ्, ण, न्, म्, के उच्चारण में जितना समय लगता है उतने समय प्रमाण का है। तत्पश्चात् मोक्षगमन होता है। नोट- अन्य सभी स्थानों पर अयोगी केवली गुणस्थान का कालमान अ, इ, उ, ऋ लु इन पाँच अक्षरों का उच्चारण काल जितना माना गया है ।।१३०८-०९ ।।
२३० द्वार:
विकुर्वणाकाल
अंतमुहुत्तं नरएसु हुँति चत्तारि तिरियमणुएसुं । देवेसु अद्धमासो उक्कोस विउव्वणाकालो ॥१३१० ॥
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