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द्वार २२६-२२७
-विवेचनज्ञान, दर्शन रूप आत्म-प्रवृत्ति जिसके द्वारा जीव वस्तु का बोध करता है वह उपयोग है। इसके दो प्रकार हैं-(i) साकार और (ii) निराकार।
(i) साकारोपयोग-आकार = वस्तु का प्रतिनियत स्वरूप जिससे ग्रहण होता है। कहा है-'आगारो उ विसेसो' वस्तु का विशेष स्वरूप आकार है। जो आकार सहित है, वह साकार है। सामान्य विशेष रूप पदार्थ के विशेष अंश का ग्राहक उपयोग साकारोपयोग है।
(ii) निराकारोपयोग-वस्तु के सामान्य धर्म का ग्राहक उपयोग निराकारोपयोग है।
साकारोपयोग के आठ भेद हैं—मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनपर्यवज्ञान, केवलज्ञान ये पाँच ज्ञान हैं तथा मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान व विभंगज्ञान ये तीन अज्ञान हैं । (वि = विपरीत, भंग = ज्ञान के प्रकार अर्थात् जिसमें विपरीत ज्ञान होता है)।
निराकारोपयोग के चार भेद हैं- चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन व केवलदर्शन। • अज्ञान = न+ज्ञान-अज्ञान यहाँ नञ् का अर्थ है कुत्सित अर्थात् मिथ्यात्व से कलुषित
मति-श्रुत-अवधिज्ञान ही अज्ञान है । कलुषित अवधिज्ञान-विभंगज्ञान कहलाता है। जिस ज्ञान के जानने के तरीके. विपरीत हो वह विभंगज्ञान है ॥१३०४ ॥
|२२७ द्वार :
योग
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सच्चं मोसं मीसं असच्चमोसं मणो तह वई य। उरल विउव्वा हारा मीस कम्मयग मिय जोगा ॥१३०५ ॥
-गाथार्थपन्द्रह उपयोग-१. सत्य २. असत्य ३. मिश्र और ४. असत्यामृषा - चार मन के योग हैं। इसी प्रकार चार वचनयोग हैं। १. औदारिक २. वैक्रिय ३. आहारक और इन तीनों के तीन मिश्र तथा कार्मण ये पन्द्रह योग हैं ।।१३०५ ॥
-विवेचन • मन, वचन और काया के आलम्बन से उत्पन्न होने वाला आत्मा का प्रयत्न विशेष योग
कहलाता है। • कारण में कार्य का उपचार करके यहाँ मन, वचन और काया ही योग रूप से विवक्षित है।
मूल योग–३प्रकार का है- (i) मनोयोग (i) वचन योग और (iii) काययोग। योग के उत्तर भेद १५ हैं।
(i) सत्य मनोयोग-वस्तु के यथावस्थित स्वरूप का चिंतन करना जैसे जीव है, वह स्वरूप से सत् व पररूप से असत् तथा देहमात्र व्यापी है। यह जीव स्वरूप का यथावस्थित चिंतन है।
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