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प्रवचन-सारोद्धार
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१६७ द्वार:
परिणाम-भेद
संकप्पाइतिएणं मणमाईहिं तहेव करणेहिं । कोहाइचउक्केणं परिणामेऽट्ठोत्तरसयं च ॥१०५९ ॥ संकप्पो संरंभो परितावकरो भवे समारंभो। आरंभो उद्दवओ सुद्धनयणं च सव्वेसिं ॥१०६० ॥
-गाथार्थपरिणाम के १०८ भेद-संकल्प आदि तीन को मन आदि तीन योग, करना आदि तीन करण तथा क्रोध आदि चार कषायों के द्वारा गुणा करने पर परिणाम के एक सौ आठ भेद होते हैं ।।१०५९ ।।
संरंभ अर्थात् संकल्प, पीडाप्रद क्रिया समारंभ तथा जीव की हिंसा करना आरंभ है। यह अर्थ सभी शुद्धनयों को मान्य हैं ॥१०६० ।।
-विवेचन परिणाम = मन के अध्यवसाय अर्थात् भाव। धर्मक्रिया व अधर्मक्रिया दोनों में परिणामों की प्रमुख भूमिका है। एक सी दिखाई देने वाली क्रियाओं का भी परिणाम भेद के कारण फलभेद हो जाता है। इस द्वार में १०८ परिणामों की चर्चा की गई है। मूल तीन परिणाम हैं। १ संकल्प या सरंभ, २ समारंभ व ३ आरंभ। ये तीनों योग से होते हैं अत: ३ x ३ = ९ भेद हुए। पूर्वोक्त ९ तीनों करणों से होते हैं, अत: ९ x ३ = २७ हुए। २७ भेद में से प्रत्येक भेद क्रोध, मान, माया व लोभ वश होने से २७ x ४ = १०८ परिणाम के भेद हुए। भांगों के प्रकार
क्रोधवश जीव का काया से संरंभ करना मानवश जीव का काया से संरंभ करना मायावश जीव का काया से संरभ करना लोभवश जीव का काया से संरंभ करना • इस प्रकार चार करने के, चार कराने के, चार अनुमोदन के = १२, इस प्रकार वचन और
मन के १२-१२ जोड़ने से = ३६ हुए। + ३६ संरंभ के, + ३६ समारंभ के, + ३६ आरंभ के, = १०८
॥१०५९ ॥ १. संरंभ
– “मैं हिंसा करूं" ऐसा संकल्प करना। २. समारंभ
- दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाली प्रवृत्ति करना । ३. आरंभ
- दूसरों के प्राण का नाश करने वाली प्रवृत्ति करना। ये तीनों नैगमादि शुद्ध नय से संमत हैं।
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