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(vii) प्रचला
जिस कर्म के उदय से व्यक्ति को खड़े-खड़े या बैठे-बैठे भी नींद आती है उसे प्रचला कहते हैं ।
(viii) प्रचलाप्रचला जिस कर्म के उदय से व्यक्ति को चलते-फिरते नींद आती है, वह प्रचलाप्रचला है 1
(ix) स्त्यानगृद्धि
स्त्यान =
घनीभूत । गृद्धि = आकांक्षा | जागृत अवस्था में सोचे हुए काम को नींद की हालत में कर डालना, स्त्यानगृद्धि निद्रा है । जिस कर्म के उदय से ऐसी नींद आती है, उस कर्म का भी नाम स्त्यानगृद्धि है । अथवा इसका नाम स्त्यानर्द्धि भी है। स्त्यान घनीभूत । ऋद्धि = आत्मशक्ति । अर्थात् जिस निद्रा के उदय में प्रथमसंघयणी व्यक्ति वासुदेव का आधा बल पा लेता है, वह स्त्यानर्द्धि निद्रा है। आगम में आता है कि एक
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बार कोई हाथी किसी मुनि के पीछे पड़ गया, इससे मुनि हाथी पर क्रुद्ध हो गये । वे स्त्यानर्द्धि निद्रा वाले थे। रात में नींद में उठे और अपने सोचे हुए के अनुसार हाथी के दोनों दंत-शूंड पकड़कर उसे पछाड़ डाला । मृत हाथी को उपाश्रय के बाहर डालकर पुन: भीतर आकर सो गये ।
का उपघात ही करता है ।
दर्शनावरणीय की नौ प्रकृति में से चक्षुदर्शनावरण आदि चार दर्शन लब्धि की समूल नाशक हैं, किन्तु निद्रापंचक प्रकट हुई दर्शन - लब्धि ३. वेदनीय – इसके दो भेद हैं(i) सातावेदनीय
(ii) असातावेदनीय
द्वार २१६
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जिस कर्म के उदय से आत्मा को स्वास्थ्य लाभ तथा विषय सम्बन्धी सुख का अनुभव होता है ।
जिस कर्म के उदय से आत्मा को रोगादि के कारण से, अनुकूल विषयों की अप्राप्ति से और प्रतिकूल विषयों की प्राप्ति से दुःख का अनुभव होता है, वह असातावेदनीय कर्म है ॥ १२५४-५५ ।।
४. मोहनीय कर्म — मुख्यतः इसके दो भेद हैं- (१) दर्शन मोहनीय, और (२) चारित्र मोहनीय |
(१) दर्शन मोहनीय — आत्मा के सम्यक्त्व गुण का घात करने वाला कर्म । यहाँ दर्शन का अर्थ है, जो पदार्थ जैसा है उसे वैसा ही समझना । इसमें विकलता पैदा करने वाला कर्म दर्शनमोह है । इसके तीन भेद हैं
(i) मिथ्यात्व मोहनीय
(ii) मिश्र मोहनीय
जिस कर्म के उदय से जिन-प्रणीत तत्त्वों पर अश्रद्धा अथवा विपरीत श्रद्धा हो ।
जिसके उदय से जिन-प्रणीत तत्त्वों पर श्रद्धा या अश्रद्धा कुछ भी न हो ।
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