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प्रवचन-सारोद्धार
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मिथ्यात्व आदि हेतुओं के द्वारा जीव उन पुद्गलों को अपनी ओर खींचता है और आग व अयोगोलक
की तरह उन पदलों को अपने साथ एकमेक करता है. यही बंध है। बंधस्थान ४ प्रकार के हैं
(i) सात प्रकृति का बंध स्थान (आयु कर्म के बिना) (ii) आठ प्रकृति का बंधस्थान (आयुकर्म सहित) (iii) छ: प्रकृति का बंधस्थान (मोहनीय व आयुकर्म के बिना) (iv) एक प्रकृति का बंधस्थान (केवल सातावेदनीय का बंध)
उदय–अपवर्तनादि करण विशेष के द्वारा अथवा स्वाभाविक रूप से उदयप्राप्त कर्मों को भोगना ही उदय है। उदयस्थान ३ प्रकार के हैं
(i) आठ कर्म का उदयस्थान (आठों कर्मों का उदय चल रहा हो तब) (ii) सात कर्म का उदयस्थान (मोहनीय कर्म के सिवाय) (iii) चार कर्म का उदयस्थान (मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय व अन्तराय के सिवाय)
उदीरणा-जिनका उदयकाल अभी नहीं आया है ऐसे कर्मदलिकों को कषाययुक्त या कषायरहित मन-वचन-काया के व्यापार द्वारा खींचकर उदयावलिका में लाना उदीरणा है। उदीरणास्थान ५ प्रकार के हैं
(i) सात कर्म का उदीरणास्थान (आयु के बिना) (ii) आठ कर्म का उदीरणास्थान (जिस समय आठों कर्मों की उदीरणा हो) (ii) छ: कर्म का उदीरणास्थान (वेदनीय और आयु की उदीरणा के बिना) (iv) पांच कर्म का उदीरणास्थान (वेदनीय, मोहनीय व आयु की उदीरणा के बिना) (v) दो कर्म का उदीरणास्थान (कषाय रहित आत्मा जब केवल नाम कर्म व गोत्र कर्म
की उदीरणा करता है) सत्ता-बंध व संक्रमण के द्वारा निजस्वरूप को प्राप्त कर्मपुद्गलों का जब तक निर्जरा व संक्रम के द्वारा नाश न हो तब तक यथावस्थित रूप में रहना सत्ता है। सत्ता स्थान ३ प्रकार के हैं
(i) आठ कर्म का सत्तास्थान (जब सभी कर्म सत्ता में होते हैं) (ii) सात कर्म का सत्तास्थान (जब मोहनीय कर्म की सत्ता नहीं होती)
(iii) चार कर्म का सत्तास्थान (ज्ञाना, दर्शना, मोह. व अन्तराय की सत्ता नाश होने पर) गुणस्थान में बंध१. मिथ्यात्व
- सात या आठ कर्म का बंध होता है। आयु का बंध होता है
तब आठ कर्म का, अन्यथा सात कर्म का बंध होता है । २. सास्वादन
- पूर्ववत् सात या आठ का बंध होता है।
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