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प्रवचन-सारोद्धार
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२१९ द्वार:
पुण्यप्रकृति
सायं उच्चागोयं नरतिरिदेवाउ नाम एयाओ। मणुयदुगं देवदुगं पंचिंदिय जाइ तणुपणगं ॥१२८३ ॥ अंगोवंगतिगंपि य संघयणं वज्जरिसहनारायं । पढमं चिय संठाणं वन्नाइचउक्क सुपसत्यं ॥१२८४ ॥ अगुरुलहु पराघायं उस्सासं आयवं च उज्जोयं । सुपसत्था विहगगई तसाइदसगं च निम्माणं ॥१२८५ ॥ तित्थयरेणं सहिया पुन्नप्पयडीओ हुंति बायाला। सिवसिरिकडक्खियाणं सयावि सत्ताणभेयाउ ॥१२८६ ॥
-गाथार्थबयालीस पुण्य प्रकृति-१. सातावेदनीय २. उच्चगोत्र ३-५. मनुष्य, तिर्यंच और देव की आयु तथा नामकर्म की निम्न प्रकृतियाँ-६-७. मनुष्यद्विक ८-९. देवद्विक १०. पंचेन्द्रिय जाति ११-१५. शरीर पंचक १६-१८. अंगोपांगत्रिक १९. वज्रऋषभनाराच संघयण २०. प्रथमसंस्थान २१-२४. प्रशस्त वर्णादि चतुष्क २५. अगुरुलघु २६. पराघात २७. श्वासोच्छ्वास २८ आतप २९. उद्योत ३०. शुभविहायोगति ३१-४०. त्रसदशक ४१. निर्माण और ४२. तीर्थंकर नामकर्म सहित बयालीस पुण्य-प्रकृतियाँ हैं। जिस व्यक्ति पर शिवलक्ष्मी का कटाक्ष-क्षेप हो जाता है, ये प्रकृतियाँ उस व्यक्ति की सत्ता में सदा होती हैं ।।१२८३-८६ ।।
-विवेचन (i) वेदनीय कर्म = १ सातावेदनीय (ii) गोत्र कर्म = १ उच्चगोत्र (iii) आयु कर्म = ३ नरायु, तिर्यगायु और देवायु (iv) नाम कर्म = ३७ मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, देवद्विक, पंचेन्द्रिय जाति, ५
शरीर, ३ अंगोपांग, प्रथम संघयण व प्रथम संस्थान, वर्णादि चार, (वर्ण में श्वेत,
पीत और रक्त प्रशस्त है, गंध में सुरभि, रस में मधुर, अम्ल, कषाय। स्पर्श में . मृदु, लघु, स्निग्ध और उष्ण) पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, शुभविहायोगति,
त्रसदशक, यश, निर्माण और तीर्थंकर नाम कर्म = ४२ कुल पुण्य प्रकृति है। इन ४२ प्रकृतियों का उदय मोक्षगामी जीव को सदैव रहता है ॥१२८३-८६ ।।
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