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द्वार २१६
अनुयोग श्रुत
प्राभृत समास श्रुत १२. अनुयोग समास श्रुत
१७. वस्तु श्रुत १३. प्राभृतप्राभृत श्रुत
१८. वस्तु समास श्रुत १४. प्राभृतप्राभृत समास श्रुत १९. पूर्व श्रुत १५. प्राभृत श्रुत
२०. पूर्व समास श्रुत सप्रभेद श्रुतज्ञान का आवरणीय कर्म श्रुतज्ञानावरण है।
(३.) अवधिज्ञानावरण–अव = अधः, नीचे, धि = ज्ञान अर्थात् नीचे रहे हुए पदार्थों को अधिक विस्तार से जानने वाला ज्ञान अथवा मन और इन्द्रिय की सहायता के बिना मर्यादा में स्थित रूपी द्रव्यों का ज्ञान, अवधिज्ञान कहलाता है। मुख्यत: इसके छ: भेद हैं
(i) अनुगामी (ii) वर्धमान (v) प्रतिपाती (ii) अननुगामी (iv) हीयमान
(vi) अप्रतिपाती असंख्येय क्षेत्र और काल विषयक होने से उनकी तरतमता की अपेक्षा से अवधिज्ञान के असंख्य भेद हैं तथा द्रव्य और भाव की तरतमता की अपेक्षा से अनंत भेद हैं । इन सभी भेद-प्रभेदों का आवारक कर्म अवधिज्ञानावरण कहलाता है।
(४.) मन:पर्यायज्ञानावरण-संज्ञी जीव काययोग के द्वारा मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर मनोयोग के द्वारा 'मन' रूप में परिणत कर चिन्तन के लिये जिनका आलंबन लेता है वह मन है और 'मन' का चिन्तन के अनुरूप जो परिणमन है उसका बोध कराने वाला ज्ञान मन:पर्याय ज्ञान है अर्थात् ढाई द्वीप में रहे हुए संज्ञी पंचेन्द्रिय के मनोगत भावों को मनोद्रव्य की रचना के माध्यम से जानने वाला ज्ञान, मन:पर्याय ज्ञान है। यह ऋजुमति और विपुलमति के भेद से दो प्रकार का है। सप्रभेद इस ज्ञान का आवरणीय कर्म मन:पर्याय ज्ञानावरण कहलाता है।
(५.) केवलज्ञानावरण : केवल = इसके कई अर्थ हैं-(i) मत्यादि ज्ञान से निरपेक्ष केवल एक, (ii) आवरण, मलरहित शुद्ध, (iii) एक ही साथ सम्पूर्ण आवरण का क्षय होने से, उत्पन्न होते ही अपने सम्पूर्ण रूप में प्रकट होने वाला, (iv) जिसके जैसा अन्य कोई ज्ञान नहीं है, (v) ज्ञेय की अपेक्षा से जो अनन्त है, ऐसा ज्ञान, केवलज्ञान है। इस ज्ञान का आवारककर्म केवलज्ञानावरण कहलाता
है।
देशघाती और सर्वघाती के भेद से कर्म दो प्रकार के हैं(i) देशघाती
- मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्याय ज्ञानावरण देशघाती हैं, क्योंकि
ये अपने-अपने आवरणीय ज्ञान को सम्पूर्ण रूप से नहीं रोक
सकते। (ii) सर्वघाती
- केवलज्ञानावरण सर्वघाती है। इसके उदय में सम्पूर्ण केवलज्ञान
ढंका रहता है।
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