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प्रवचन - सारोद्धार
मतिज्ञानावरणीय आदि पांच उत्तर प्रकृतियाँ है, तथापि सामान्य विवक्षा से ज्ञानावरण मूलप्रकृति है। जैसे अंगुलियाँ अलग-अलग होने पर भी मुष्टि में सभी का समावेश हो जाता है। घी, गुड़, आटा आदि अलग-अलग होने पर भी मोदक में सभी का समावेश हो जाता है, वैसे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय में मतिज्ञानावरणीय आदि सभी भेदों का समावेश हो जाता है ॥ १२५३ ॥
२. दर्शनावरणीय दर्शनावरणीय कर्म बंध, उदय और सत्ता की अपेक्षा से तीन प्रकार का होता
है—
(i) बंध, उदय और सत्ता में दर्शनावरणीय कर्म, चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल के भेद से कदाचित् चार प्रकार का होता है ।
(ii) पूर्वोक्त चार एवं निद्रा, प्रचला सहित छ: प्रकार का होता है ।
(iii) पूर्वोक्त छ: निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि के भेद से नौ प्रकार का है ।
(i) चक्षुदर्शनावरण
(ii) अचक्षुदर्शनावरण
(iii) अवधिदर्शनावरण
(iv) केवलदर्शनावरण
(v) निद्रा
(vi) निद्रानिद्रा
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आँख के द्वारा वस्तुगत सामान्य धर्म का जो बोध होता है वह चक्षु दर्शन कहलाता है । उस बोध को रोकने वाला कर्म चक्षुदर्शनावरण है ।
आँख को छोड़कर शेष इन्द्रियाँ और मन के द्वारा जो पदार्थ के सामान्य धर्म का प्रतिभास होता है, उसे अचक्षुदर्शन कहते हैं। उसका आवारक कर्म अचक्षुदर्शनावरण है ।
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इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही आत्मा के द्वारा जो रूपी द्रव्य के सामान्य धर्म का बोध होता है, उसे अवधि-दर्शन कहते हैं । इसका आवरण अवधिदर्शनावरण है । संसार के सम्पूर्ण पदार्थों का जो सामान्य अवबोध होता है, उसे केवलदर्शन कहते हैं, उसका आवरण केवलदर्शनावरण कहा जाता है।
I
'द्रा' धातु कुत्सितगति अर्थ में है । नियतं = निश्चित रूप से, द्राति = कुत्सित भाव को प्राप्त होता है अर्थात् जिसके द्वारा चैतन्य निश्चित रूप से अस्पष्ट भाव को प्राप्त होता है वह निद्रा है। सोया हुआ व्यक्ति सुखपूर्वक जग जाए वह निद्रा है । जिस कर्म के उदय से ऐसी नींद आती है, उपचार से वह कर्म भी निद्रा कहलाता है ।
सोया हुआ व्यक्ति बड़ी कठिनाई से जगे, उसे निद्रानिद्रा कहते हैं, जिस कर्म के उदय से ऐसी नींद आती है, उस कर्म का नाम निद्रानिद्रा है ।
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