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१९९ द्वार:
उत्पत्ति-विरह
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भवणवणजोइसोहंमीसाण चउवीसई मुहुत्ता उ। उक्कोस विरहकालो सव्वेसु जहन्नओ समओ ॥११६७॥ नव दिण वीस मुहुत्ता बारस दस चेव दिण मुहत्ता उ। बावीसा अद्धं चिय पणयाल असीइ दिवससयं ॥११६८ ॥ संखिज्ज मास आणयपाणय तह आरणच्चुए वासा। संखेज्जा विन्नेया गेविज्जेसुं अओ वोच्छं ॥११६९ ॥ हिट्ठिमे वाससयाइं मज्झिम सहसाइं उवरिमे लक्खा। संखिज्जा विन्नेया जहसंखेणं तु तीसुपि ॥११७० ॥ पलिया असंखभागो उक्कोसो होइ विरहकालो उ। विजयाइसु निद्दिट्ठो सव्वेसु जहन्नओ समओ ॥११७१ ॥
-गाथार्थउत्पत्ति का विरहकाल—भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिषी, सौधर्म एवं ईशान देवलोक के देवों का उत्कृष्ट उपपात-विरहकाल चौबीस मुहूर्त है एवं जघन्य विरहकाल सभी देवों का एक समय का है ॥११६७ ॥
सनत्कुमार देवलोक के देवों का उत्कृष्ट उपपात विरहकाल नौ अहोरात्रि एवं बीस मुहूर्त परिमाण है। माहेन्द्र देवों का विरहकाल बारह दिन दश मुहूर्त का है। ब्रह्मदेवलोक में साढ़ा बावीस दिन का, लांतक में पैंतालीस दिन का, महाशुक्र में अस्सी दिन का, सहस्रार में सौ अहोरात्रि का, आनत-प्राणत में संख्याता मास का तथा आरण-अच्युत में संख्याता वर्ष का विरहकाल है। ग्रैवेयक का संख्याता काल का विरहकाल इस प्रकार है। अधस्तन ग्रैवेयक त्रिक में सैकड़ों वर्ष का, मध्यम ग्रैवेयक त्रिक में हजारों वर्ष का एवं ऊपरवर्ती ग्रैवेयक त्रिक में लाखों वर्ष का उत्कृष्ट उपपात विरहकाल है। विजयादि चार अनुत्तर विमान में उत्कृष्ट विरहकाल पल्योपम का असंख्यातवां भाग परिमाण है। जघन्यत: सनत्कुमार से अनुत्तर पर्यंत उपपात का विरहकाल एक समय का है ॥११६८-७१ ॥
-विवेचन यद्यपि देवता प्राय: करके सतत उत्पन्न होते रहते हैं तथापि यदा-कदा अन्तर पड़ता है। सामान्य रूप से चारों प्रकार के देवों का उत्पात विरह कालउत्कृष्ट = १२ मुहूर्त, जघन्य = १ समय। इसके बाद कोई न कोई देव अवश्य उत्पन्न होता
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