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द्वार २१४
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सूक्ष्म और बादर पृथ्विकाय, अप्काय, तेड वायु, अनंत वनस्पति-ये दस भेद तथा प्रत्येक वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय असंज्ञी-संज्ञी पञ्चेन्द्रिय-इन सभी के पर्याप्ता और अपर्याप्ता मिलाने से कुल जीव भेद बत्तीस होते हैं ॥१२४३ ।।
वैक्रिय शरीरी जीवों के छप्पन्न भेद हैं। यथा सात नरक, दस भवनपति, आठ व्यन्तर, पाँच ज्योतिषी, बारह देवलोक, नौ ग्रैवेयक, पाँच अनुत्तर विमान में उत्पन्न होने वाले जीव। इनमें मनुष्य और तिर्यंच ये दो जीवभेद मिलाने से कुल अट्ठावन जीवभेद होते हैं। अट्ठावन के पर्याप्ता और अपर्याप्ता दो-दो भेद होने से कुल एक सौ सोलह जीवभेद होते हैं ॥१२४४-४५ ॥
जीवों के बत्तीस भेदों में संज्ञीद्विक न्यून करके शेष तीस भेदों को एक सौ सोलह जीवभेदों के साथ जोड़ने से जीवों के एक सौ छयालीस भेद भी होते हैं। पूर्वोक्त एक सौ छयालीस जीवभेदों का समावेश भव्य, अभव्य, दुर्भव्य और आसन्नभव्य इन चार भेदों में होता है। इन जीवभेदों को समझकर शिवसुख के इच्छुक आत्माओं को इनका आत्मवत् पालन करना चाहिये ।।१२४६-४७ ।।
श्री आम्रदेव मुनिपति के शिष्य श्री नेमिचन्द्रसूरि ने स्वपर के हित के लिये 'जीवसंख्या नामक' कुलक की रचना की है ॥१२४८ ॥
___-विवेचन नेमिनाथ भगवान को नमस्कार करके एकविध, द्विविध आदि जीवों की संख्या सिद्धांतानुसार
कहूँगा।
एकविध
द्विविध
त्रिविध
- चेतना लक्षण की अपेक्षा से सिद्ध व संसारी दोनों जीव चेतनावान होते हैं। क्योंकि जीव को सतत बोध रहता है, अन्यथा जीव
को अजीव बनने का प्रसंग उपस्थित होगा। - सिद्ध और संसारी अथवा त्रस और स्थावर । त्रस = द्वीन्द्रिय
आदि । स्थावर = पृथ्वी आदि। स्त्रीलिंग, पुल्लिग और नपुंसक लिंग की अपेक्षा से। स्त्री के सात लक्षण हैं-योनि, मृदुता, अस्थैर्य, मुग्धता, बलहीनता, उरोज तथा पुरुष की अभिलाषा। पुरुष के सात लक्षण हैं—पुरुषचिह्न, कठोरता, दृढ़ता, पौरुष, दाढ़ी-मूंछ, धृष्टता व स्त्री की अभिलाषा । नपुंसक के लक्षण-जिसमें स्त्री व पुरुष दोनों के लक्षण मिलते
हों तथा जिनका मोह अतिप्रबल हो। - नारक, तिर्यंच, देव और मनुष्य की अपेक्षा से अथवा स्त्रीलिंग,
पुल्लिग, नपुंसक लिंग और अलिंग (अवेदी = जिसने वेद का उपशम या क्षय किया हो ऐसे भवस्थ या सिद्ध जीव) की अपेक्षा ४ प्रकार के जीव हैं।
चतुर्विध
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