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द्वार २१४-२१५
(ii) अभव्य . - तीन काल में भी मोक्ष नहीं जा सकते (अभव्यत्व भी अनादिकालीन
होता है।) (iii) दूर भव्य - जो मोक्ष तो जाते हैं, किन्तु लम्बे समय के बाद (गोशालक की
तरह) (iv) आसन्न भव्य - जो उसी भव में अथवा दो, तीन भव के बाद निश्चित मोक्ष में
जाते हैं। पूर्वोक्त चारों का भव्य और अभव्य इन दो भेदों में समावेश हो सकता है, फिर भी दूर-भव्य और आसन्न-भव्य इन दो में भव्यत्व का अन्तर बताने के लिये चार भेद बताये गये हैं।
वृद्धमतानुसार-मोक्षतत्त्व को मानने वाला मोक्ष को पाने की तीव्र अभिलाषा वाला, “मैं भव्य हूँ या अभव्य हूँ?" यदि भव्य हूँ तो मेरा सौभाग्य है, अन्यथा दुर्भाग्य है ऐसा चिन्तन करने वाला भव्य जीव है। जिसके हृदय में पूर्वोक्त चिन्तन कभी भी स्फुरित नहीं होता वह अभव्य है। आचारांगसूत्र की टीका में कहा है कि अभव्य जीव को 'मैं भव्य हूँ या अभव्य हूँ ?' ऐसा संदेह कदापि नहीं होता। मोक्षसुख के अभिलाषी जीवों के द्वारा पूर्वोक्त १५६ प्रकार के जीवों की आत्मतुल्य मानते हुए रक्षा करनी चाहिये।
श्री आम्रदेवसूरि के शिष्य श्री नेमिचन्दसूरि ने स्वपर के हित के लिये, अपने स्मरण के लिये तथा दूसरों के ज्ञान के लिये जीवसंख्या का प्रतिपादन किया है ॥१२३१-४८ ॥
२१५ द्वार:
अष्ट-कर्म
पढमं नाणावरणं बीयं पुण दंसणस्स आवरणं । तइयं च वेयणीयं तहा चउत्थं च मोहणीयं ॥१२४९ ॥ पंचममाउं गोयं छटुं सत्तमगमंतरायमिह । बहुतमपयडित्तेणं भणामि अट्ठमपए नामं ॥१२५० ॥
-गाथार्थआठ कर्म-१. ज्ञानावरण २. दर्शनावरण ३. वेदनीय ४. मोहनीय ५. आयु ६. गोत्र ७. अन्तराय तथा अधिकतम उत्तर प्रकृति वाला होने से आठवें स्थान में नामकर्म का वर्णन करता हूं ॥१२४९-५० ॥
-विवेचन(i) ज्ञानावरणीय-ज्ञान = वस्तुगत विशेष धर्म को जानने वाला आत्मा का विशिष्ट गुण । आवरण = आत्मा के ज्ञान-गुण को आच्छादित करने वाला कर्म । जीव मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और
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