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द्वार १८८-१८९
१८८
• 'चक्षुरिन्द्रिय १ लाख योजन से अधिक दूर रहे हुए विषय को ग्रहण करती है' यह कथन निस्तेज पदार्थों की अपेक्षा से है। तेजस्वी चन्द्र, सूर्य आदि पदार्थ तो प्रमाणांगुल से निष्पन्न २१ लाख योजन की दूरी से भी ग्राह्य होते हैं। जैसे पुष्करवरद्वीप के निवासी मनुष्य (मानुषोत्तर पर्वत के निकटवर्ती) कर्क संक्रान्ति के दिन २१३४५३७ योजन दूर से उदय-अस्त
होते हुए सूर्य को देख सकते हैं। • घ्राण-रसन व स्पर्शन ९ योजन दूर स्थित विषय को ही ग्रहण कर सकते हैं। इससे अधिक
दरस्थ को नहीं। चक्षुरिन्द्रिय जघन्य से आत्मांगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण दूर रहे हुए विषय को ही ग्रहण कर सकती है। इससे अधिक समीपस्थ को नहीं। कारण, चक्षु अप्राप्यकारी होने से असंयुक्त विषय को ही ग्रहण कर सकती है। अत्यन्त संयुक्त काजल आदि का ज्ञान नहीं कर सकती।
अन्यथा इनका भी ज्ञान होने लगेगा। प्रश्न-स्पर्शनेन्द्रिय की जाड़ाई उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है तो शरीर पर लगे हुए तलवार आदि के घाव की वेदना जो भीतर तक होती है, वह किस प्रकार घटित होगी?
उत्तर—यह प्रश्न वस्तु स्वरूप का यथार्थ ज्ञान न होने के कारण ही उठा है। अन्यथा नहीं उठता। वस्तत: स्पर्शनेन्द्रिय का विषय शीत, उष्ण आदि स्पर्श है। न कि वेदना का अनभव। तलवार के घात से भीतर शरीर में जो वेदना होती है, वह शीतादि स्पर्शजन्य नहीं है, जो कि त्वगिन्द्रिय से ग्राह्य हो। वह दुःखानुभव रूप है, जिसे आत्मा अपनी समग्र चेतना से अनुभव करता है। किसी भी शारीरिक वेदना को जीव अपनी समग्र चेतना से ही अनुभव करता है। यही कारण है कि शरीर के किसी एक अंग में पीड़ा होने पर सम्पूर्ण शरीर में पीड़ा का अनुभव होता है।
प्रश्न-शीतल पेय-पदार्थ का पान करते समय भीतर जो शीतलता का अनुभव होता है, वह कैसे घटेगा?
उत्तर-स्पर्शनेन्द्रिय की जाड़ाई पूर्वोक्त है, किंतु शीतलता के अनुभव का कारण अन्य है। केवल बाह्य चमड़ी ही त्वगिन्द्रिय नहीं कहलाती किन्तु शरीर के भीतर की चमड़ी भी स्पर्शेन्द्रिय कहलाती है। स्पर्शेन्द्रिय शरीरव्यापी है। यही कारण है कि शीतल जलादि पीते समय भीतर में शीतलता का अनुभव होता है ॥११०५-११०९ ।।
१८९ द्वार:
जीवों में लेश्या
पुढवीआउवणस्सइबायरपत्तेसु लेस चत्तारि । गब्भे तिरियनरेसुं छल्लेसा तिन्नि सेसाणं ॥१११० ॥
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