________________
प्रवचन-सारोद्धार
२०३
३१
साग
है
(vi) सुमन २८ सागरोपम
२७ सागरोपम (vii) सोमनस् २९ सागरोपम
२८ सागरोपम (viii) प्रीतिकर ३० सागरोपम
२९ सागरोपम (ix) आदित्य ३१ सागरोपम
३० सागरोपम ५ अनुत्तर देवस्थिति उत्कृष्ट
देवस्थिति जघन्य विजय वैजयंत
साग जयन्त अपराजित
पम (v) सर्वार्थसिद्ध वैमानिक देवी की जघन्य-उत्कृष्ट स्थिति
• वैमानिक देवियों की उत्पत्ति प्रथम व द्वितीय देवलोक में ही होती है। देवियाँ दो प्रकार की
हैं-(i) परिगृहीता व (ii) अपरिगृहीता। (i) परिगृहीता देवियाँ कुलपत्नी की तरह होती हैं।
(ii) अपरिगृहीता देवियाँ वेश्या की तरह होती हैं। • सौधर्म देवलोक में दोनों की जघन्य स्थिति १ पल्योपम की है। • ईशान देवलोक में दोनों की जघन्य स्थिति साधिक १ पल्योपम की है। • सौधर्म देवलोक में दोनों की उत्कृष्ट स्थिति क्रमश: ७ पल्योपम व ५० पल्योपम की है। • ईशान देवलोक में दोनों की उत्कृष्ट स्थिति क्रमश: ९ पल्योपम व ५५ पल्योपम की है।
अतर—जो तरा न जा सके अथवा जो बहुत समय बाद पूर्ण हो। इस परिभाषा के अनुसार सागरोपम भी ‘अतर' कहलाता है।
वैमानिक के १० इन्द्र हैं। आठ देवलोक के ८ इन्द्र और ९-१०वें का एक और ११-१२वें का एक, इस प्रकार कुल मिलाकर ८ + २ = १० इन्द्र हैं।
चारों निकाय के कुल मिलाकर, भवनपति के २० + ३२ व्यन्तरेन्द्र + २ ज्योतिष + १० वैमानिक के = ६४ इन्द्र हैं ॥११२८-४६ ।। .
१९५ द्वार:
भवन
सत्तेव य कोडीओ हवंति बावत्तरी सयसहस्सा। एसो भवणसमासो भवणवईणं वियाणिज्जा ॥११४७ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org