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(iii) क्षुधा
(iv) तृषा
(v) खुजली
(vi) परवशता (vii) ज्वर
• नरक के जीवों को शीत वेदना वाले स्थान से उठाकर हिमालय की चोटी पर सुलाया जाये
तो वे वहाँ अत्यंत सुख का अनुभव करते हुए गहरी नींद में सो जाते हैं । ढाई द्वीप में पैदा होने वाला सम्पूर्ण अनाज खा ले तो भी नरक के जीवों की भूख नहीं मिटती ।
सम्पूर्ण समुद्र, सरोवर और नदी का पानी पी ले तो भी नरक के जीवों की प्यास नहीं बुझती ।
नरक के जीवों के शरीर पर छुरियों द्वारा खुजली की जाये तो भी वह नहीं मिटती ।
वे जीव सदा परवश होते हैं ।
(viii) दाह (ix) भय
द्वार १७४
है, उससे अनन्तगुणी शीतवेदना का अनुभव नरक के जीवों को होता है
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मनुष्य को अधिक से अधिक जितना ज्वर आ सकता है, उससे अनन्तगुणा अधिक ज्वर नरक के जीवों को हमेशा रहता है। भीतर से सदा जलते रहते हैं ।
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(x) शोक
२. परस्पर कृत वेदना
नरक के जीवों के द्वारा परस्पर पैदा की जाने वाली वेदना । इसके दो भेद हैं
(i) प्रहरण कृत
(ii) शरीर कृत
अवधिज्ञान और विभंगज्ञान के द्वारा आगामी दुःख का ज्ञान होने
से नरक के जीव सतत भयभीत रहते हैं ।
भय के कारण सदा शोकातुर रहते हैं ।
शस्त्रादि द्वारा कृत वेदना । पहली नरक से पाँचवीं नरक पर्यंत होती है
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शरीर द्वारा कृत वेदना । सामान्यतः यह वेदना सातों नरक में होती है । यह कथन अशास्त्रीय नहीं है । जैसा कि जीवाभिगम में कहा है- हे भदन्त ! रत्नप्रभा पृथ्वी के नारक एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं या अनेक रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ? – दोनों में समर्थ हैं । यदि एक रूप की विकुर्वणा करते हैं तो एक बड़े मुद्गर, करवत, खड्ग, शक्ति, हल, गदा, मूसल, चक्र, बाण, भाला, तोमर, शूल, दंड, भिंडीमाल रूप की विकुर्वणा करते हैं । यदि अनेक रूपों की विकुर्वणा करते हैं तो वे मुद्गर, मुषण्ढी, करवत, असि, शक्ति, हल, गदा, मूशल, चक्र, धनुष, भाला, शूल आदि संख्याता, स्वशरीर संबद्ध व समानाकर शस्त्रों की विकुर्वणा करते हैं तथा परस्पर उनका प्रयोग करके
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