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द्वार १७६-१७७
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(ii) उत्तरवैक्रिय—स्वाभाविक शरीर ग्रहण करने के बाद, कार्य विशेष के अनुरूप वैक्रियशक्ति के द्वारा निर्मित विविध प्रकार के शरीर।।
__ ये दोनों ही शरीर जघन्य और उत्कृष्ट भेद से दो प्रकार के हैंनरक
भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना उत्तरवैक्रिय उत्कृष्ट अवगाहना १. रत्नप्रभा
७ धनुष ३ हाथ ६ अंगुल १५ धनुष २ हाथ १२ अंगुल २. शर्कराप्रभा
१५ धनुष २ हाथ १२ अंगुल ३१ धनुष और एक हाथ ३. वालुकाप्रभा ३१ धनुष और १ हाथ ६२ धनुष और २ हाथ ४. पंकप्रभा
६२ धनुष और २ हाथ १२५ धनुष ५. धूम प्रभा १२५ धनुष
२५० धनुष ६. तम:प्रभा २५० धनुष
५०० धनुष ७. तमस्तमप्रभा ५०० धनुष
१००० धनुष • सातों नरक की भवधारणीय जघन्य अवगाहना, उत्पत्तिकाल की अपेक्षा अंगुल के असंख्यातवें
भाग प्रमाण होती है। । सातों नरक की उत्तरवैक्रिय जघन्य अवगाहना अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण होती है।
करण, उत्तरवैक्रिय के प्रारम्भ में इतनी ही अवगाहना होती है। इससे कम नहीं हो सकती, क्योंकि जीव प्रदेशों का इतना ही संकोच होता है। कुछ आचार्य उत्तरवैक्रिय के प्रारम्भ में असंख्यातवें भाग की अवगाहना मानते हैं, वह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रज्ञापना और अनुयोगद्वार से विरोध आता है। प्रज्ञापना में कहा है-नरक के जीवों की उत्तरवैक्रिय के प्रारम्भ में जघन्य अवगाहना अंगुल के संख्यातवें भाग की है तथा उत्कृष्ट अवगाहना १००० धनुष की है। अनुयोगद्वार की टीका में आचार्य भगवंत हरिभद्रसूरि जी ने कहा है कि-तथाविध प्रयत्न नहीं हो पाने के कारण उत्तरवैक्रिय के प्रारंभ में नरक के जीवों की जघन्य अवगाहना अंगुल के संख्यातवें भाग की ही होती है ।।१०७७-८० ।।
१७७ द्वार:
विरह-काल
चउवीसई मुहत्ता सत्त अहोरत्त तह य पन्नरस । मासो य दोय चउरो छम्मासा विरहकालो उ ॥१०८१ ॥, उक्कोसो रयणाइसु सव्वासु जहन्नओ भवे समयो। एमेव य उव्वट्टणसंखा पुण सुरवराण समा ॥१०८२ ।।
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