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प्रवचन-सारोद्धार
१८५
१८८ द्वार:
इन्द्रिय-स्वरूप
कायंबपुप्फगोलय मसूर अइमुत्तयस्स कुसुमं च । सोयं चक्खू घाणं खुरप्पपरिसंठिअं रसणं ॥११०५ ॥ नाणागारं फासिंदियं तु बाहल्लओ य सव्वाइं। अंगुलअसंखभागं एमेव पुहत्तओ नवरं ॥११०६ ॥ अंगुलपुहुत्त रसणं फरिसं तु सरीरवित्थडं भणियं । बारसहिं जोयणेहिं सोयं परिगिण्हए सदं ॥११०७ ॥ रूवं गिण्हइ चक्खू जोयणलक्खाओ साइरेगाओ। गंधं रसं च फासं जोयणनवगाउ सेसाणि ॥११०८ ॥ अंगुलअसंखभागा मुणंति विसयं जहन्नओ मोत्तुं । चक्टुं तं पुण जाणइ अंगुलसंखिज्जभागाओ ॥११०९ ॥
-गाथार्थइन्द्रियों का स्वरूप तथा विषयग्रहण-कदंब पुष्प के गोलक के आकार वाले कान, मसूर के समान आँख, शिरीष पुष्प के समान नाक, खुरपे जैसी जीभ तथा स्पर्शेन्द्रिय विभिन्न आकृति की होती है। सभी इन्द्रियाँ अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी मोटी एवं चौड़ी होती है ।।११०५-०६ ।।
रसनेन्द्रिय अंगुलपृथक्त्व विस्तार वाली है। स्पर्शेन्द्रिय शरीर परिमाण विस्तृत है। श्रोत्रेन्द्रिय बारह योजन से आगत शब्द ग्रहण कर सकती है। आँख साधिक लाख योजन दूरस्थ रूप को ग्रहण कर सकती है। शेष इन्द्रियाँ अपने विषय रूप रस, गंध एवं स्पर्श को नौ योजन दूर से ग्रहण कर सकती है ॥११०७-०८।।
आँख को छोड़कर शेष चार इन्द्रियाँ जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग की दूरी पर स्थित स्व-स्व विषयों को ग्रहण करती है। चक्षु इन्द्रिय अंगुल के संख्यातवें भाग की दूरी पर स्थित अपने विषय को ग्रहण करती है ॥११०९ ।।
-विवेचनइन्द्र = ‘इदि' ऐश्वर्ये धातु से बना है। अर्थात् जो ज्ञानादि अनंत ऐश्वर्य से युक्त है वह इन्द्र है। प्रत्येक जीव तीन लोक के ऐश्वर्य से संपन्न होता है। इसलिये उसे इन्द्र कहते हैं। इन्द्र-जीव जिस चिह्न से पहचाना जाये, उसे इन्द्रिय कहते हैं। यह इन्द्रिय शब्द की व्युत्पत्ति है।
जिससे अपने विषय का ज्ञान होता है, उसे इन्द्रिय कहते हैं। यह इन्द्रिय की परिभाषा है। इसके मुख्य पाँच भेद हैं
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