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प्रवचन - सारोद्धार
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लेश्या अर्थात् जीव के शुभाशुभ परिणाम। वे परिणाम कृष्ण, नील, पीत आदि द्रव्य के संयोग से उत्पन्न होते हैं । वे द्रव्य कृष्णादि लेश्या वाले जीवों के सदा सन्निहित रहते हैं । उन द्रव्यों के साहचर्य से आत्मा में जो परिणाम उत्पन्न होते हैं, मुख्यरूप से तो वे ही लेश्या हैं, किन्तु गौण रूप से उन परिणामों के हेतुभूत द्रव्य भी लेश्या कहलाते हैं । यहाँ नरक और देवों की जो प्रतिनियत लेश्याएँ बताई गईं, वे कृष्णादि द्रव्य रूप लेश्याएँ हैं, क्योंकि उन लेश्या द्रव्यों का उदय देव और नरक के जीवों को अवस्थित होता है । अत: देव और नरक की प्रतिनियत लेश्यायें द्रव्यलेश्या रूप हैं, नहीं कि बाह्य-वर्ण-रूप ।
तिर्यंच और मनुष्यों के लेश्या द्रव्य अवस्थित नहीं होते, वे अन्य लेश्याद्रव्यों को पाकर अपने स्वरूप का परित्यागकर उस रूप में परिणत हो जाते हैं, जैसे श्वेतवस्त्र किरमची आदि रंग के सम्पर्क से अपना रूप त्यागकर तद्रूप बन जाते हैं । यदि ऐसा न माना जाये तो ३ पल्योपम की आयु वाले मनुष्य- तिर्यंच की लेश्या की स्थिति जो तीन पल्योपम की बताई है, वह संगत नहीं होगी, कारण स्वाभाविक रूप में लेश्या की उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की ही है । मनुष्य और तिर्यंचों की लेश्या की उत्कृष्ट स्थिति ३ पल्योपम की परिणमन की अपेक्षा से घटित होती है।
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देव और नरक के सम्बन्ध में लेश्या का विचार अलग है। देव और नारकों के लेश्याद्रव्य अन्य लेश्याद्रव्यों के संपर्क में आने पर भी अपने स्वरूप का परित्याग कर अन्य रूप में परिणत नहीं होते, मात्र तदाकार बन जाते हैं । उसके प्रतिबिंब को ग्रहण कर लेते हैं । जैसे मणि में काला धागा पिरो दें तो धागे के कृष्ण वर्ण के सम्बन्ध से मात्र मणि का आकार काला हो जाता है । स्फटिक पास जपा पुष्पादि (लाल रंग का एक फूल) रखने से स्फटिक, पुष्प के प्रतिबिंब के कारण लाल दिखाई देता है । किन्तु दोनों ही अपने स्वरूप का त्याग कर अन्य रूप में परिणत नहीं होते । अर्थात् प्रथम उदाहरण में मणि का रंग नहीं बदलता और दूसरे उदाहरण में स्फटिक अपने स्वरूप का त्याग नहीं करता। वैसे यहाँ भी कृष्ण-लेश्या के द्रव्य, नील-लेश्या के द्रव्यों को पाकर कदाचित् नील- लेश्या का आकार ग्रहण कर लेते हैं और कदाचित् उसके प्रतिबिंब को ग्रहण कर लेते हैं, परन्तु कृष्ण-लेश्या के द्रव्य, सर्वथा नील- लेश्या के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श रूप में परिणत नहीं होते । स्वरूप से तो वे कृष्ण लेश्या के द्रव्य ही रहते हैं। प्रज्ञापनासूत्र के लेश्यापद में यही बताया है । विस्तारभय से वह पाठ यहाँ नहीं दिया। इस प्रकार सातवीं नरक के जीवों से सम्बन्धित कृष्णलेश्या के द्रव्य, तेजोलेश्या के द्रव्य को पाकर जब तदाकार या तत्प्रतिबिंब भाव से युक्त बनते हैं, तब सदा अवस्थित कृष्ण लेश्या के द्रव्य का सम्पर्क होने पर भी तेजोलेश्या के द्रव्य का प्राबल्य होने से सातवीं नरक के जीवों में भी शुभ- भाव की जागृति होती है, और इसी कारण उनमें सम्यक्त्व पाने की संभावना रहती है। इसमें किसी प्रकार का विरोध नहीं है ।
इस प्रकार प्रतिनियत कृष्णलेश्या के द्रव्य का योग होने पर भी सातवीं नरक के जीवों को सम्यक्त्व प्राप्ति में कोई विरोध नहीं है ।
प्रश्न- इस प्रकार तो सातवीं नरक में भी तेजोलेश्या का सद्भाव सिद्ध होता है और यह बात आगम विरोधी होने से असंगत है, क्योंकि सूत्र में सातवीं नरक में मात्र कृष्ण-लेश्या का ही सद्भाव बताया है, अत: पूर्वोक्त बात कैसे संगत होगी ?
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