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प्रवचन-सारोद्धार
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वेदना उत्पन्न करते हैं। प्रहरणकृत वेदना पहली नरक से पाँचवीं नरक तक होती है। छठी व सातवीं नारकी के नैरइये मृतगाय के कलेवर में उत्पन्न होने वाले वज्रमुखी, क्षुद्र जन्तुओं के रूप की विकुर्वणा करके परस्पर एक दूसरे के शरीर पर घोड़े की तरह आरोहण कराते हैं। काटते हैं। इक्षु के कीड़ों की तरह एक दूसरे के शरीर में प्रवेश कराते हैं। नारकी के जीव अपने शरीर से संबद्ध समानाकार व संख्याता शस्त्रों की ही विकुर्वणा कर सकते हैं, पर असंख्याता, असमानाकार व शरीर से भिन्न शस्त्रों की विकुर्वणा नहीं कर सकते, स्वभावत: उनका ऐसा ही
सामर्थ्य होता है। • एक कुत्ता दूसरे कुत्ते को देखकर लड़ पड़ता है, वैसे एक नरक का जीव दूसरे नरक के
जीव को देखकर उस पर टूट पड़ता है। • क्षेत्र के प्रभाव से प्राप्त होने वाले शस्त्रों को लेकर नरक के जीव एक दूसरे के टुकड़े कर
डालते हैं। जैसे कि कत्लखाना (Slaughter-house) हो।। • परस्पर कृत वेदना मिथ्यादृष्टि नारकों में ही होती है। जो सम्यग्दृष्टि जीव होते हैं, वे
तत्त्वचिन्तन द्वारा दूसरों से की गई वेदना शांति पूर्वक सहन करते हैं किन्तु अपनी ओर से वे किसी को वेदना नहीं पहुँचाते। वे वेदना और दुःख को अपना कर्मजन्य प्रसाद मानते हैं। यही कारण है कि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यग् दृष्टि आत्मा मानसिक पीड़ा से अधिक
पीड़ित रहते हैं। ३. परमाधामी कृत वेदना—पहली, दूसरी और तीसरी नरक में होती है।
• तपी हुई लोहे की पुतली के साथ आलिंगन करवाना। • पिघले हुए शीशे का रस पिलाना। • शस्त्रों से शरीर पर घाव करके उस पर नमक डालना। • गरम-गरम तेल से स्नान करवाना। • घाणी में पीलना। • चने की तरह भट्टी में पूंजना । • करवत से चीरना। • भाले की तीक्ष्ण नोंक पर पिरोना। • अग्नि के समान जलती रेत पर चलाना । • पर्वत या ताल के पेड़ पर चढ़ाकर नीचे गिराना। • घन या कुल्हाड़ी से चोट करना। • सिंह, बाघ आदि हिंसक जानवरों का रूप बनाकर अनेक प्रकार से नरक के जीवों की कदर्थना
करना।
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