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द्वार १५७
जीव मरेगा, उस अवधि में मनुष्य आयु की अपेक्षा से जीव मृत है और उसका वह मरण अवधिमरण है। द्रव्य सापेक्ष मरण होने से यह द्रव्य अवधिमरण कहलाता है। ग्रहण करके छोड़े हुए पुद्गलों का पुनर्ग्रहण अध्यवसायों की विचित्रता के कारण शक्य है।
(i) क्षेत्रत:-एक बार पाये हुए क्षेत्र को पुन: पाने तक का अन्तरकाल क्षेत्र की अपेक्षा से अवधिमरण है।
(iii) काल—विशेष प्रमाणयुक्त आयु को एकबार पाकर पुन: उतने ही प्रमाण की आयु जब तक न मिले, वह मध्यवर्ती काल, उस काल की अपेक्षा से काल-अवधिमरण है।
(iv) भव—किसी विशेष भव को छोड़कर दुबारा उसे नहीं पाये तब तक की अवधि उस भव की अपेक्षा से भव-अवधिमरण है।
(v) भाव-एक बार नरकादि आयु को क्षयकर दुबारा उसी आयु को क्षय करने की अवधि भाव-अवधि-मरण है।
३. आत्यन्तिक मरण-आयु के जिन दलिकों को एकबार भोग लिया उन्हें दुबारा कभी भी ग्रहण न करना। यह भी पूर्ववत् ५ प्रकार का है ॥१००९ ॥
४. वलन्मरण-बिना भाव से मात्र, लज्जावश संयम का पालन करना जैसे—'इस कष्ट से मुझे कब मुक्ति मिलेगी?' ऐसा चिन्तन करते हुए अन्त में मृत्यु का वरण करना। यह संयम से पीछे हटते हुए जीव का मरण होने से वलन्मरण है। यह मरण भग्नपरिणामी व्रती को ही संभव है, क्योंकि अव्रती के संयम ही नहीं होता तो उससे मुक्त होने का वह विषाद कैसे करेगा? विषाद के अभाव में वलन्मरण संभव नहीं होता।
५. वशार्त-मरण-इन्द्रियों की गाढ़ आसक्ति से पीड़ित होकर मृत्यु का वरण करना। जैसे, रूप की आसक्ति के कारण पतंगों का मरना ॥१०१० ॥
६. अन्तःशल्य-मरण-ऋद्धि, रस और शाता के अतिरेक से गर्वित बनकर रत्नत्रय में लगे हुए अतिचारों का प्रायश्चित्त किये बिना ही मरना । ऐसा आत्मा अभिमानवश या लज्जावश प्रायश्चित्त नहीं करता, जैसे 'यदि प्रायश्चित्त लूँगा तो आचार्य आदि के पास जाना पड़ेगा, वन्दनादि करना पड़ेगा। प्रायश्चित्त के रूप में मिला हुआ तप-आराधन आदि करना पड़ेगा अथवा मैं बहुश्रुत हूँ, आचार्य अल्पश्रुत हैं, ये क्या मुझे प्रायश्चित्त देंगे? अल्पश्रुत आचार्य को मेरे जैसा कैसे वन्दन करेगा?' इस प्रकार अभिमान से अथवा लज्जा के कारण ‘लोग क्या कहेंगे कि मेरे जैसा बहुश्रुत भी ऐसा पाप करता है?' प्रायश्चित्त नहीं करता। जैसे कील आदि द्रव्य-शल्य शरीर में चुभन पैदा करते हैं, तथा कालान्तर में शरीर के अंगों को सड़ा देते हैं, वैसे अनालोचित पाप (भाव-शल्य) भी आत्मा को कालान्तर में हानि पहुँचाते हैं। ऐसे भाव-शल्यों की आलोचना किये बिना ही मरना अन्तःशल्य मरण है। अभिमानरूपी कीचड़ में फंसे हुए व्यक्तियों का यही मरण होता है ॥१०११ ॥
७. तद्भव-मरण-जिस भव का आयु पूर्ण कर जीव मरा हो, पुन: उसी भव में आकर मरना,
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